23 साल बाद बरी हुए निसार का सवाल ‘अदालत ने मेरी आजादी तो लौटा दी, जिंदगी कौन लौटाएगा’

Nisar

नई दिल्ली । जब निसार 20 वर्ष के थे तब उसे तथा दो अन्य को बाबरी मस्जिद ढहाए जाने की पहली बरसी पर हुए ट्रेन बम धमाकों के सिलसिले में शक के आधार पर उठाया गया था लेकिन 23 वर्ष तक कानूनी लड़ाई लड़ते लड़ते निसार 43 वर्ष के हो गए तब जाकर वे खुद को निर्दोष साबित कर सके ।

वह ठीक से चल नहीं पाते थे, ना ही ढंग से सो पाते थे। पिछले 23 सालों से निसार जेल में यही करते रहे थे, 17 दिन पहले उन्‍हें जयपुर जेल से रिहा कर दिया। बाहर निकलते ही निसारउद्दीन अहमद ने देखा तो उनके बड़े भाई जहीरउद्दीन अहमद उनका इंतजार कर रहे थे।

जनसत्ता में प्रकाशित एक रिपोर्ट एक अनुसार ‘निसार कहते हैं, मैंने अपने पैरों में भारीपन महसूस किया। कुछ पल के लिए मैं भूल ही गया था कि मैं आजाद हूं।’ निसार उन तीन लोगों में से एक हैं जिन्‍हें सुप्रीम कोर्ट ने सभी आरोपों से बरी कर दिया था। देश की सबसे बड़ी अदालत ने उन्‍हें सुनाई गई उम्रकैद की सजा को रद्द किया और 11 मई को तुरंत रिहा करने का आदेश दिया।

तीनों को बाबरी मस्जिद ढहाए जाने की पहली बरसी पर हुए ट्रेन बम धमाकों के सिलसिले में उठाया गया था। इन बम धमाकों में दो यात्रियों की मौत हो गई थी और 8 घायल हो गए थे। जब तक तीनों को बरी किया जाता, उनके परिवार उनकी बेगुनाही की लड़ाई लड़ते-लड़ते टूट चुके थे।

निसार कहते हैं, “मैंने अपनी जिंदगी के 8,150 दिन जेल के भीतर बिताए हैं। मेरे लिए जिंदगी खत्‍म हो चुकी है। जिसे आप देख रहे हैं, वह एक जिंदा लाश है। मैं 20 साल का होने वाला था, जब उन्‍होंने मुझे जेल में डाल दिया। अब मैं 43 साल का हूं।

आखिरी बार जब मैंने अपनी छोटी बहन को देखा था तब वह 12 साल की थी, अब उसकी 12 साल की एक बेटी है। मेरी भांजी तब सिर्फ एक साल की थी, उसकी शादी हो चुकी है। मेरी कजिन मुझसे दो साल छोटी थी, अब वह दादी बन चुकी है। पूरी एक पीढ़ी मेरी जिंदगी से गायब हो चुकी है।

निसार ने जेल से निकलने के बाद आजादी की पहली रात एक होटल में बिताई। वह कहते हैं, “मैं सो नहीं सका। वहां कमरे में एक बिस्‍तर था। इतने सालों से मैं फर्श पर एक पतला कंबल ओढ़कर सोता आया था। “निसार कहते हैं कि उन्‍हें 15 जनवरी, 1994 का दिन याद है, जब पुलिस ने उन्‍हें गुलबर्गा, कर्नाटक स्थित उनके घर से उन्‍हें उठाया था। वह तब फार्मेसी सेकेंड ईयर में पढ़ते थे। उन्‍होंने कहा, “15 दिन बाद एक एग्‍जाम होना था। मैं कॉलेज जा रहा था।

पुलिस की गाड़ी इंतजार कर रही थी। एक व्‍यक्ति ने रिवॉल्‍वर दिखाई और मुझे जबरन भीतर बिठा लिया। कर्नाटक पुलिस को मेरी गिरफ़्तारी के बारे में कोई खबर ही नहीं थी। यह टीम हैदराबाद से आई थी, वे मुझे हैदराबाद ले गए।” रिकॉर्ड के मुताबिक निसार को 28 फरवरी, 1994 को अदालत के सामने पेश किया गया। जब उनके परिवार को पता चला कि वह कहांं हैं। उनके बड़े भाई जहीरउद्दीन मुंबई में सिविल इंजीनियर थे, उन्‍हें अप्रैल में उठाया गया।

जहीर कहते हैं, “हमारे पिता नूरूउद्दीन अहमद ने हमें बेगुनाह साबित करने की लड़ाई के लिए सबकुछ छोड़ दिया। 2006 में जब उनकी मौत हुई, तब भी उन्‍हें उम्‍मीद नहीं थी। अब वहां कुछ भी नहीं बचा। कोई यह कल्‍पना नहीं कर सकता है कि ऐसे परिवार पर क्‍या बीती होगी जिसके दो जवान बेटों को जेल में डाल दिया गया हो।”

निसार की तरह जहीर को भी उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी, लेकिन स्‍वास्‍थ्‍य के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने उन्‍हें 9 मई, 2008 को जमानत पर रिहा कर दिया। उन्‍हें फेफड़ों में कैंसर हो गया था।

जहीर बताते हैं कि उन्‍होंने अदालत को कई प्रार्थना पत्र लिखे जिसमें उन्‍होंने बताया कि कैसे उन्‍हें फंसाया गया। आखिरकार अदालत में हम दोनों और दो अन्‍य को दोषमुक्‍त करार दिया। कई कानूनी पचड़ों से जेल में रहते हुए जूझने के बाद रिहा हुए निसार कहते हैं, “मैं सुप्रीम कोर्ट का शुक्रगुजार हूं कि उन्‍होंने मेरी आजादी मुझे लौटाई। लेकिन मेरी जिंदगी मुझे कौन लौटाएगा?

कहते हैं कि कानून अँधा होता है लेकिन क्या कानून के रखवाले भी अंधे होते हैं ? एक अहम सवाल यह है कि निर्दोष होते हुए भी इतने वर्षो तक जेल में गुजारने वाले व्यक्ति का खोया समय कैसे वापस मिलेगा ? क्या सिर्फ शक के आधार पर जांच किये बिना किसी को भी वर्षो जेल में रखना भी अपराध की श्रेणी में नहीं आना चाहिए ? क्या ऐसे दोषी पुलिस अधिकारीयों पर कार्यवाही नहीं होनी चाहिए जो बिना जांच किये केस को गलत दिशा में मोड़ देते हैं ।

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