कहीं कयामत की तरफ तो नहीं जा रही दुनिया

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ब्यूरो । पिछले कुछ वर्षो में अनुभव किया गया है कि पृथ्वी का तापमान लगातार बढ़ रहा है । अब से कुछ सौ वर्षो के बाद पृथ्वी का तापमान इतना ज़्यादा बढ़ जायेगा कि यहाँ इंसानो का रहना मुमकिन नहीं होगा । पृथ्वी एक आग के गोले में परिवर्तित हो जायेगी । ‘नेचर क्लाइमेट चेंज’ में प्रकाशित लेख में कनाडियाई शोधकर्ताओं ने आंकड़ों के ज़रिए ऐसे कई चौंकाने वाले तथ्यों का खुलासा किया है।

शोधकर्ताओं का मानना है कि जीवाश्म ईंधन के जलने का धरती पर बहुत बुरा असर पड़ रहा है। इनके मुताबिक ये सब वर्ष 2300 तक संभव हो सकता है। यानि बस 184 साल ही और रह गए हैं।

लेख में कहा गया है कि सारे जीवाश्म ईंधन के जलने से हमारी धरती इतनी गर्म हो जाएगी कि वैश्विक तापमान 8 डिग्री तक बढ़ जाएगा। इससे 5 ट्रिलियन टन (5 लाख करोड़ टन) कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन होगा। इससे धरती पर क्या असर पड़ेगा, खुद ही समझा जा सकता है।

इंटरनेशनल बिज़नेस टाइम्स (ऑस्ट्रेलिया) की रिपोर्ट के मुताबिक स्टडी में आईपीसीसी (इंटरगर्वमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज) के एक्सटेंडेड मॉडल का इस्तेमाल किया गया है। इसमें पाया गया है कि जीवाश्म ईंधन के जलने से पहले जैसे सोचा गया था, उससे कहीं ज़्यादा असर धरती पर पड़ने वाला है। वर्ष 2300 तक आर्कटिक क्षेत्र का तापमान ही 19.5 डिग्री तक बढ़ जाएगा। वहीं वैश्विक तापमान की बात की जाए तो तापमान पूर्व औद्योगिक काल की तुलना में 6.4 डिग्री से 9.5 डिग्री के बीच बढ़ जाएगा। औसतन ये 8.2 डिग्री बैठता है।

मुख्य शोधकर्ता कैटारज़िना तोकारस्का ने कहा कि टेम्परेट क्षेत्रों जैसे कि मेडेटेरेनियन, ऑस्ट्रेलिया और अमेज़न में बारिश पहले की तुलना में आधी रह जाएगी। दूसरी तरफ ट्रॉपिकल क्षेत्रों में ग्लोबल वॉर्मिंग से बारिश चार गुणा बढ़ जाएगी।

टोकारस्का ने इंगित किया कि पहले के क्लाइमेट मॉडल्स ने ग्लोबल वॉर्मिंग के खतरे को हल्के में लिया था। साथ ही वर्ष 3000 से पहले कोई गंभीर खतरा नहीं माना था।

शोध में कहा गया है कि इस तरह के क्लाइमेट बदलाव इकोसिस्टम, इनसान के स्वास्थ्य, कृषि, अर्थव्यवस्था और अन्य सेक्टर्स पर अत्यधिक असर डालेंगे।

अगर इनसान की वजह से क्लाइमेट बदलाव से वैश्विक तापमान 8 डिग्री तक बढ़ता है तो धरती का बहुत बड़ा हिस्सा इतना गर्म हो जाएगा कि यहां इनसानों का जीना मुश्किल हो जाएगा। सारे तटीय और नीचे तल वाले इलाके समुद्र के अंदर चले जाएंगे। धरती इतनी गर्म हो जाएगी जितनी कि 6.5 करोड़ साल पहले थी, जब यहां डॉयनासोर्स का वर्चस्व था।

शोध के अनुसार अगर क्लाइमेट को दो डिग्री तक स्थिर करना है तो इनसानों को जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल पर तेजी से और निर्णायक ढंग से अंकुश लगाना होगा। अल नीनो की वजह से ऑस्ट्रेलिया के ग्रेट बैरियर रीफ का 100 प्रतिशत ब्लीच हो जाने का ख़तरा हो गया है। अर्थव्यवस्थाओं को अपना रास्ता बदलना होगा। ये बेहद चिंता का विषय है कि जीवाश्व ईंधन का दोहन बड़े पैमाने पर अब भी

कयामत की निशानियां :

पिछले 10 वर्षों के आंकड़े देखे तो ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे जो बताते हैं कि पृथ्वी की जलवायु बदल रही है। ग्लोबल वॉर्मिंग से बदलता मौसम चक्र पृथ्वी की वनस्पति और प्राणी जगत पर तो असर डाल ही रहा है मानव गतिविधियां भी इससे प्रभावित हो रही हैं। हर साल बदलता मौसम तो ‘कयामत या प्रलय’ के केवल शुरुआती संकेत ही दे रहा है। मौसम के बदलते मिजाज से ग्लोबल वॉर्मिंग का असर लगभग सभी महाद्वीपों पर साफ देखा जा रहा है।

हालांकि ग्लोबल वॉर्मिंग से सिकुड़ते हिमक्षेत्र की खबरों के बीच पिछले दिनों हिमालय के हिमनदों के बढ़ते फैलाव की खबरें भी सामने आई थीं। लेकिन यह खुशी 5 मई 2012 को दु:स्वप्न में बदल गई जब नेपाल के खूबसूरत पर्यटन स्थल पोखरा के पास स्थित हिमनद से बनी प्राकृतिक झील में दरार पड़ गई और करोड़ों गैलन बर्फीले पानी और मिट्टी के सैलाब ने देखते ही देखते इस खूबसूरत पर्यटक स्थल पर बने रिसॉर्ट सहित कई घर, खेत-खलिहानों को तबाह कर दिया।

अचानक आई इस बाढ़ की चपेट में आने से कई विदेशी पर्यटकों सहित 13 लोग तथा कई दर्जन मवेशी मारे गए। बिना किसी बरसात के तटबंध टूटने या मीलों दूर पहाड़ों में हुई बरसात से अचानक आई ऐसी बाढ़ को फ्लैश फ्लड या आकस्मिक बाढ़ कहा जाता है। इसका एक और कारण होता है अत्यधिक तापमान के चलते ग्लेशियरों का पानी पहाड़ की ढ़लानों पर बनी झीलों में भरने लगता और पानी के बढ़ते दबाव से तटबंध टूट जाता है और बाढ़ आ जाती है।

नेपाल में ग्लेशियर लेक बर्स्ट होने का यह संभवत: पहला मामला है। विशेषज्ञों के अनुसार इसका एक बड़ा संभावित कारण है ग्लेशियर का तेजी से पिघलना। हिमालय पर्वत श्रंखला में ऐसी कई झीले हैं जो हिमनद (ग्लेशियर) से बनी हैं।

ग्रीन हाउस के प्रभाव से लगातार गर्म होती जलवायु से हिमनद तेजी से पिघल रहे हैं, नतीजतन पहाड़ों की ढ़लान पर स्थित क्षेत्रों पर ‘फ्लैश फ्लड़’ (आकस्मिक बाढ़) आने का खतरा बना रहता है।

आंकड़ों पर नजर डालें तो पिछले कुछ वर्षों में हिमालय क्षेत्र में स्थित इन झीलों पर ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते खतरा मंडरा रहा है। चीन के हिमालयीन क्षेत्रों में पिछले कई सालों में ऐसी आकस्मिक बाढ़ आने से जान-माल का भारी नुकसान हुआ है।

तेजी से पिघलते हिमनदों से यह जीवनदायिनी नदियां अपने किनारों को तोड़ मैदानी इलाकों में बाढ़ का कहर बरपा सकती हैं, लेकिन यह तो समस्या की शुरुआत है।

हिमनदों का पिघलना सिर्फ एक मौसमी बदलाव मात्र नहीं रहेगा। इसकी वजह से अप्रत्याशित सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक परिणाम भी सामने आएंगे। बाढ़ के दूषित जल से फैली महामारी तथा पीने के पानी का संकट करोड़ों लोगों को प्रभावित क्षेत्र से पलायन पर मजबूर कर देगा।

जमीन डूबने और अस्तित्व बचाने के लिए शरणार्थियों तथा विस्थापितों की फौज अन्य शहरों, यहां तक की दूसरे देशों की ओर भी रुख करेगी। यह समस्या दो देशों के बीच तनाव का कारण बन सकती है।

पानी के संकट को दूर करने के लिए सभी देश अपने-अपने क्षेत्रों में बहने वाली नदियों पर बांध बनाकर स्थिति को विस्फोटक बना देंगे। पानी को बांध लेने से दूसरे देशों को पर्याप्त पानी नहीं मिल सकेगा जिसके नतीजे में अंतरराष्ट्रीय संबंध कटु होते चले जाएंगे। भारत-बांग्ला देश के मध्य जारी तीस्ता नदी विवाद इसका एक प्रत्यक्ष उदाहरण है।

बदलते मौसम और पानी का संकट से फसलों की गुणवत्ता पर असर होगा। कम होते अनाज उत्पादन से खाद्य पदार्थों की कीमतें भी ऊंची हो जाएंगी। कुदरत के कहर को झेल रहे गरीबों के सामने खाने-पीने का संकट उत्पन्न हो जाएगा।

ग्लोबल वॉर्मिंग से पिघलते हिमनदों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी काफी चिंता जताई जा रही है लेकिन किसी न किसी मामले पर विकसित तथा विकासशील देशों के बीच पैदा होने वाले गतिरोध कोई ठोस उपाय निकालने में बाधा बन रहे हैं।

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TeamDigital