जानिए क्‍या है शरीयत और मुस्‍ल‍िम पर्सनल लॉ

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ब्यूरो । भारत में मुस्लिम पर्सनल लॉ अक़्सर चर्चा में आ जाता है और चर्चा के पीछे ज़्यादातर विवाद ही रहा है। आज से 31 साल पहले यानी 1985 में मुस्लिम पर्नल लॉ उस समय चर्चा में गया था जब शाह बानो नाम की एक महिला ने पूर्व पति से गुज़ारा-भत्ता लेने के लिए अदालत का दरवाज़ा खटखटाया था। इसके बाद हाल ही में ये लॉ फिर तब सुर्ख़ियों में आ गया जब कुकाशीपुर की सायरा बानो ने कोर्ट में तीन तलाक को चुनौती दी।

मुस्लिम पर्सनल लॉ शरीयत पर आधारित है और शरीयत मोटे तौर पर क़ुरान के प्रावधानों तथा पैग़ंबर मोहम्मद की शिक्षाओं पर आधारित है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद-14 के तहत भारत के सभी नागरिकों को कानून का समान संरक्षण प्राप्त है लेकिन मुसलमानों के शादी, तलाक, विरासत, बच्चों की हिरासत आदि जैसे व्यक्तिगत मुद्दे मुस्लिम पर्सनल लॉ के दायरे में आ जाते हैं।

मुस्लिम पर्सनल लॉ की शुरुआत साल 1937 में हुई थी। हम आपको बताने जा रहे हैं मुस्लिम पर्सनल लॉ क्या है, कैसे हुई इसकी शुरुआत और क्यों सरकार भारतीय मुस्लिम महिलाओं को वैवाहिक स्थिति के मामले में हमेशा दुविधा में फंस जाती है?

कैसे वजूद में आई शरीयत

इस्लाम आने के पहले अरब में कबायली सामाजिक ढांचा हुआ करता था। उस समाज में उनके अपने नियम और क़ानून थे लेकिन लिखित में कुछ नहीं था। समय के साथ-साथ और ज़रुरत के मुताबिक़ ये कानून बदलते गए। सातवीं सदी में मुस्लिम समुदाय की स्थापना और इसके विस्तार के साथ ही कबायली रीति रिवाजों पर कुरान का असर होने लगा। इस्लामिक समाज शरीयत के मुताबिक चलता है। शरीयत में पैगंबर के काम और शब्द भी शामिल हैं जिसे हदीस कहा जाता है।

समय के साथ विकसित हुई शरीयत

ऐसा नहीं है कि सदियों से शरीयत में कोई बदलाव नहीं हुआ है। पैगंबर के जिंदा रहते हुए कुरान में लिखे कानून उस समय के समाज की समस्याओं के समाधान के लिए थे। उनकी मौत के बाद कई धार्मिक संस्थानों और अपने देश की न्यायिक व्यवस्था में शरीयत लागू करने वाले देशों ने समाज की जरूरतों के मुताबिक इन कानूनों की व्याख्या की और इन्हें विकसित किया। इस्लामिक लॉ की चार संस्थाएं हैं जो कुरान की आयतों और इस्लामिक समाज के नियमों की अलग-अलग तरह से व्याख्या करते हैं। ये चार संस्थाएं हैं हनफिय्या, मलिकिय्या, शफिय्या और हनबलिय्या जो अलग-अलग सदियों में विकसित हुई। मुस्लिम देशों ने अपने मुताबिक इन संस्थाओं के कानूनों को अपनाया।

भारत में ऐसे लागू हुआ मुस्लिम पर्सनल लॉ

भारत में मुस्लिम पर्सनल लॉ एप्लिकेशन एक्ट साल 1937 में पास हुआ था। इसका उद्देश्य भारतीय मुस्लिमों के लिए एक इस्लामिक कानून कोड तैयार करना था। ब्रिटिशों चाहते थे कि वे भारतीयों पर उनके सांस्कृतिक नियमों के मुताबिक ही शासन करें। उस समय से (1937) मुस्लिमों के शादी, तलाक, विरासत और पारिवारिक विवादों के फैसले इस एक्ट के तहत ही होते हैं। एक्ट के मुताबिक व्यक्तिगत विवादों में सरकार दख़ल नहीं कर सकती।

भारत में अन्य धर्मों के लिए भी हैं क़ानून

भारत में में अलग-अलग धर्मों के लिए अलग-अलग सिविल कोड है। 1956 का हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के तहत हिंदू, बुद्ध, जैन और सिखों में विरासत में मिली संपत्ति का बंटवारा होता है। इसके अलावा 1936 का पारसी विवाह-तलाक एक्ट और 1955 का हिंदू विवाह अधिनियम भी कुछ उदाहरण हैं।

क्यों होता है शरीयत एप्लिकेशन एक्ट से टकराव?

पहले ऐसे कई मामले आए हैं जब महिलाओं के सुरक्षा से जुड़े अधिकारों का धार्मिक अधिकारों से टकराव होता रहा है। 1985 में 62 वर्षीय शाह बानो ने एक याचिका दाखिल करके अपने पूर्व पति से गुजारे भत्ते की मांग की थी। सुप्रीम कोर्ट ने उनकी गुजारे भत्ते की मांग को सही बताया था लेकिन इस फैसले का इस्लामिक संस्थाओं ने विरोध किया था। उन्होंने इसे क़ुरान के ख़िलाफ़ बताया था। मामले ने काफी तूल पकड़ ली थी। सत्तारुढ़ कांग्रेस सरकार ने तब Muslim Women Protection of Rights on Divorce Act पास किया था। इस कानून के तहत पति के लिए तलाकशुदा पत्नी को गुजारा भत्ता देना ज़रुरी हो गया था लेकिन साथ ही ये प्रावधान भी था कि यह भत्ता केवल इद्दत की अवधि के दौरान ही देना होगा। इद्दत तलाक के 90 दिनों बाद तक ही होती है।

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