जामिया की इस पहल ने बदली कमजोर महिलाओं की जिंदगी, महिलाओं के लिए खुले नए रास्ते

shabana

नई दिल्ली । दिल्ली की जामिया मिल्लिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी ने एक ऐसा फैसला लिया है जिससे न सिर्फ कमज़ोर वर्ग की महिलाओं को लाभ मिलेगा बल्कि महिलाओं के लिए कामकाज के लिए रोज़गार के नए रास्ते भी खुलेंगे ।

अब तक किसी भी और कॉलेज की तरह दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय में चलने वाली हर कैंटीन को भी न सिर्फ पुरुष चलाते हैं बल्कि इसमें खाना बनाने वाले भी पुरुष ही हैं।

इसी विश्वविद्यालय में पहली बार एक ऐसी कैंटीन खुली है जिसमें खाना बनाने से लेकर उसे परोसने और कैंटीन का मैनेजमेंट संभालने तक का हर काम महिलाएं कर रही हैं।

क्या आप यकीन करेंगे कि इसे चलाने वाली कोई यंग एंटरप्रेन्योर नहीं बल्कि, ऐसी महिलाएं हैं जिन्हें जिंदगी ने गम और पेरशानी के सिवाए कुछ नहीं दिया।

असल में जामिया की गवर्निंग बॉडी की मीटिंग में वाइस चांसलर तलत अहमद ने प्रस्ताव रखा कि क्यों न जामिया में एक ऐसी कैंटीन शुरु की जाए जिससे न सिर्फ महिलाओं को रोजगार मिले बल्कि, इस तबके को एक नई राह भी मिल सके। वीसी के इस प्रस्ताव पर सहमति के बाद बड़ी चुनौती ये थी कि इस काम को शुरु करने का बीड़ा कौन उठाए।

जामिया के गवर्निंग बॉडी की जनरल सेक्रेटरी फराह फारुकी ने महिलाओं की मदद के लिए काम करने वाली शबाना तौहीद का नाम सुझाया जिस पर वाइस चांसलर ने अपनी सहमति दे दी। वीसी ने शबाना को भरोसा दिलाया कि वो विश्वविद्यालय प्रशासन से अनुरोध करेंगे कि इन महिलाओं को कैंपस में कैंटीन खोलने के लिए मामूली किराए पर जमीन दी जाए।

फिलहाल कैंटीन की देख रेख कर रही शबाना तौहीद बताती हैं कि किसी यूनिवर्सिटी में जमीन मिल जाने से बड़ा कोई तोहफा नहीं हो सकता था। जमीन मिलने के साथ एनजीओ ने कैंटीन की छत से लेकर किचन के लिए जरूरी बर्तनों की खरीद के लिए फंड जुटाना शुरु किया और 16 जनवरी 2015 को इस कैंटीन का उद्घाटन हो गया।

सात महिलाओं के साथ शुरु हुई ये कैंटीन आज 40 ऐसी ही महिलाओं की जिंदगी और उनके परिवार का सहारा बन चुकी है। शबाना बताती हैं कि जब कैंटीन की शुरुआत हुई तो इसमें काम करने वाली महिलाओं की कमाई महीने के 6 हजार तक थी, लेकिन सालभर के भीतर ही यहां काम करने वाली महिलाओं की आमदनी 10 हजार रुपए महीने तक पहुंच गई।

शबाना कहती हैं कि 40 की जगह कम महिलाओं को रख कर भी कैंटीन चलाई जा सकती है और ज्यादा मुनाफा कमाया जा सकता है लेकिन, हमारा मकसद ये नहीं है। दस्तरख्वान का मकसद ज्यादा से ज्यादा महिलाओं को रोजगार देकर उनकी जिंदगी बेहतर बनाना है।

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कैंटीन में रोज दोपहर में खाना खाने के लिए आने वाले शारिक मुजफ्फरपुर से बीबीए करने जामिया आए हैं। वो बताते हैं कि इस कैंटीन में आने पर ऐसा लगता है कि आप अपने ही घर में खाना खा रहे हैं। आखिर घर पर तो हम अपनी मां के हाथ का ही खाना खाते हैं और दस्तरख्वान में आने के बाद वो कमी महसूस नहीं होती।

बीबीए के ही स्टूडेंट रिजवान कहते हैं कि मुझे तो समझ में नहीं आता कि खाना बनाने जैसा परंपरागत काम जो महिलाएं अच्छे से कर सकती हैं उसे पेशे के तौर पर अपनाने की जब बात आती है तो उसमें पुरुषों का कब्जा हो जाता है। जामिया ने एक नई परंपरा शुरु की है और ऐसी चीजों को पूरे देश में बढ़ावा दिया जाना चाहिए।

शबाना बताती हैं कि कैंटीन की लोकप्रियता इस कदर बढ़ गई है कि डीयू और जेएनयू के छात्र और अध्यापक तक यहां की पकौड़ियां और कबाब-पराठा खाने के लिए शाम को जमा होते हैं। यहां आने वालों की ये भी मांग है कि दस्तरख्वान में रात का खाना भी शुरु किया जाना चाहिए। इस कैंटीन की लोकप्रियता का आलम ये है कि जेएनयू प्रशासन ने शबाना से आग्रह किया है कि वो जेएनयू में भी ऐसी एक कैंटीन खोलें ताकि इस पहल को आगे बढ़ाया जा सके।

दस्तरख्वान ने जामिया के छात्रों और अध्यापकों के स्वाद को तो बढ़ाया ही है साथ ही इस कैंटीन को चलाने में मदद करने वाली सबसे कम उम्र (18 सल) की जूली के जीवन में भी इससे काफी बदलाव आया है। उनके घर में टीवी नहीं थी और छोटे भाई का पड़ोस में टीवी देखने जाना उन्हें अच्छा नहीं लगता था।

अपनी पहली तनख्वाह से जूली ने कलर टीवी खरीदी और एक सुंदर सी चटाई भी जिस पर बैठकर अब उनका पूरा परिवार अपने पसंदीदा प्रोग्राम देखता है।  शबाना बताती हैं कि अब कैंटीन का काम संभल गया है और महिलाएं चाहती हैं कि कैंटीन के पीछे खाली पड़ी जमीन उन्हें दे दी जाए जिसमें किचन गार्डन बनाया जा सके और यहीं पैदा की गई ताजी सब्जियों का कैंटीन में इस्तेमाल हो। उन्होंने जामिया प्रशासन से इसकी औपचारिक मांग भी की है।

महिलाओं को आर्थिक आत्मनिर्भरता का रास्ता दिखाने वाली इस पहल का असर चालीस महिलाओं और उनके परिवारों की जिंदगी पर दिखने लगा है। हालांकि शबाना इस बात का जवाब पूरे आत्मविश्वास से नहीं दे पातीं कि इससे परिवार के निर्णय लेने में इन महिलाओं की भागीदारी कितनी बढ़ी है।

शबाना कहती हैं कि, दस्तरख्वान के किचन से शुरु हुई कमाई, जिस दिन इन महिलाओं को अपनी जिंदगी के हर फैसले लेने की ताकत दे सकेगा उस दिन उन्हें असली खुशी होगी।

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