नारी शोषण आज भी जारी है
ब्यूरो (विजयलक्ष्मी थापा)। साल के आखिरी हफ्ते में नीति आयोग द्वारा जारी सतत विकास रिपोर्ट 2019 में अन्य विषयों में जहां राज्यों की स्थिती में सुधार हुआ है वहीं महिलाओं के विषय स्थिती अब भी चिंताजनक बनी हुई है। बुनियादी सुविधाओं के मामले में लगभग सभी राज्यों ने अपनी स्थिती में सुधार करते हुए 50 से अधिक अंक पाए हैं। लेकिन कुपोषण के साथ साथ लैंगिक समानता एक ऐसा विषय है जिसमें देश के केवल चार राज्यों को ही 50 या उससे अधिक अंक प्राप्त हुए हैं।
रिपोर्ट के अनुसार जम्मू कश्मीर एवं लद्दाख में महिलाओं की स्थिति सबसे अच्छी है जिन्हें 100 में 53 अंक मिले हैं जबकि हिमाचल प्रदेश को 52 और केरल को 51 अंक प्राप्त हुए हैं। सबसे खराब स्थिति तेलंगाना और देश की राजधानी दिल्ली की है। जिसे लैंगिक समानता में 100 में मात्र 26 तथा दिल्ली को 27 अंक प्राप्त हुए हैं। यह स्थिति देश में महिलाओं के साथ बढ़ते अपराधों को दर्शाता है।
जिन राज्यों को 50 या उससे अधिक अंक मिले हैं, इस बात की ओर इशारा करता है कि यहां भी महिलाओं की स्थिती को सुधारने में पचास फीसदी ही काम पूरा हो पाया है। जिसे शत प्रतिशत तक पहुंचना सबसे बड़ी चुनौती है। यानि साल 2020 में केंद्र से लेकर सभी राज्य सरकारों की सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी देश को कुपोषण से मुक्ति दिलाना और महिलाओं के जीवन को सुरक्षित बनाना होगा।
वास्तव में इक्कीसवी सदी में भी महिलाओं की स्थिती वही है जो प्राचीन काल में थी। आज भले ही महिला देश के सर्वोच्च पद पर आसीन होने से लेकर हवाई जहाज तक उड़ा रही हों, गणतंत्र दिवस में राजपथ पर सैनिक टुकड़ी का नेतृत्व महिलाओं द्वारा किया जा रहा हो, देश के महत्वपूर्ण विभागों में भी महिलाएँ अधिकारी के रूप में अपनी सेवाएं दे रही हों, लेकिन इसके बावजूद उनके साथ भेदभाव आज भी बदस्तूर जारी है। विशेषकर ग्रामीण परिवेश में देखें तो यह स्थिति और भी दुखद है।
आज भी देश के अधिकतर ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं की स्थिति दयनीय है। हमारे देश का कोई भी प्रदेश क्यों न हो, महिलाओं के साथ होने वाले अत्याचार से अछूता नहीं है। अधिकतर घरों में महिलाएँ पुरुषों की अपेक्षा सुबह चार बजे से उठकर देर रात तक घर की जिम्मेदारी पूरी निष्ठा से निभाती हैं, लेकिन इसके बावजूद उनके द्वारा किए गए कार्य को महत्त्व नहीं दिया जाता है। कई बार उन्हें शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना से भी गुज़रनी पड़ती है।
आज हम भले मंगल पर बस्तियां बसाने का ख्वाब देख रहे हों, लेकिन हकीकत यह है कि आज भी इस देश की आधी आबादी को किसी न किसी रूप में हिंसा का शिकार होना पड़ रहा है। ग्रामीण क्षेत्र हो या शहरी, संभ्रात परिवारों की महिलाएँ हों या सामान्य परिवार की, किसी न किसी रूप में महिलाएँ हिंसा का शिकार हो रही हैं।
यदि बेटा पैदा नहीं होता है तो भी इसका जिम्मेदार महिला को ही माना जाता है, जबकि इसका वैज्ञानिक कारण सभी जानते हैं। शोषण की बात यही नहीं रूकती है बल्कि कई अन्य रूपों से भी उनके साथ भेदभाव किया जाता है। न तो परिवार में शादी-विवाह आदि में निर्णय लेने का उसे हक़ दिया जाता है और न ही अपनी पसंद का जीवनसाथी चुनने का उसे अधिकार होता है। यहां तक कि घर की सम्पत्ति, जमीन, जायदाद आदि में भी महिलाओं को मालिकाना हक़ से वंचित रखने का प्रयास किया जाता है।
हालांकि सरकार द्वारा महिलाओं की स्थिती में सुधार लाने के लिए कई नियम और कानून बनाये गए हैं। लेकिन कई बार ऐसे नियम और कानून केवल किताबों तक सीमित रह जाते हैं। उदहारण के लिए पंचायत में ही महिलाओं की स्थिती देख लीजिये। जहां महिलाओं को 33% आरक्षण दिया गया। महिलाएँ चुनाव जीत कर प्रधान भी बनती हैं। लेकिन पितृसत्तात्मक परिवेश में सिर्फ नाम मात्र की प्रधान बन कर रह जाती हैं। प्रधान द्वारा लिया जाने वाला सभी निर्णय प्रधान पतियों द्वारा लिया जाता है। उन्हें उनके निर्णय लेने के अधिकारों से भी वंचित रखा जाता है।
देवभूमि कहे जाने वाले राज्य उत्तराखंड में भी महिलाओं की स्थिती में बहुत सुधार की आवश्यकता है। नीति आयोग की रिपोर्ट में लैंगिक समानता के क्षेत्र में उत्तराखंड राज्य का स्थान 15वां है। राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों में घरेलू हिंसा के मामले शहरी क्षेत्रों की अपेक्षा अधिक हैं। हालांकि समय के साथ महिलाओं की स्थिती में थोड़ा सुधार हुआ है। एक तरफ जहां उनमें जागरूकता आई है तो वहीं दूसरी ओर महिलाओं के प्रति समाज की सोंच में भी बदलाव आया है।
आज महिलाएँ शिक्षित हो रही है और अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति जागरूक हुई है, जरूरत है तो सिर्फ उनके सामाजिक और आर्थिक उन्नति की। अधिकतर क्षेत्रों में महिलाएँ घर की चार दीवारी को लांघ कर बाहर निकली हैं। घर के कामकाज के साथ-साथ नौकरी भी कर रही हैं और दोनों ही जगह अपने कार्य को पूरी ईमानदारी व निष्ठा से निभा रही हैं। ज़रूरत है केवल उन्हें प्रोत्साहित करने की, उनके आत्म-विश्वास को बढ़ाने की।
आवश्यकता है उनके खिलाफ होने वाली यौन हिंसा को रोकने की। एक ऐसे समाज के निर्माण की जहां महिलाएं स्वयं को सुरक्षित महसूस कर सकें। उन्हें शारीरिक अथवा मानसिक रूप से प्रताड़ित करने वालों को कानून के शिकंजे में कसने की। ताकि उनके लिए सुरक्षित और आत्मविश्वास वाले समाज का निर्माण हो सके।
इस देश में महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा को रोकने के लिए बनाये गए कानून बहुत सख्त हैं। लेकिन उनके क्रियान्वयन की प्रक्रिया बहुत ही लचर है जिसका लाभ अक्सर यौन अपराधी उठाते है। 21वीं सदी का विकसित भारत उस वक़्त तक मुमकिन नहीं है जबतक हम महिलाओं के प्रति होने वाली किसी भी प्रकार की हिंसा पर काबू नहीं पा लेते हैं।
(चरखा फीचर्स)