मीडिया की सांप्रदायिक मुहिम का नुकसान सिर्फ मुसलमानो को नहीं

मीडिया की सांप्रदायिक मुहिम का नुकसान सिर्फ मुसलमानो को नहीं

ब्यूरो (डॉ मोहम्मद फुरक़ान)। पिछले कुछ दिनों में देखने में आया है कि एक सिलसिलेवार तरीके से मुहिम के तौर पर भारत में मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाने के प्रयास हो रहे हैं। नफ़रत की इस आग को हवा देने वालोँ में भारत का पेशेवर मीडिया चढ़ बढ़कर भूमिका अदा कर रहा है। मीडिया के अलावा कुछ ऐसे लोग भी हैं जो किसी ना किसी संगठन से संबंधित हैं या एक खास विचारधारा के मानने वाले हैं।

हालांकि इन सबकी राजनैतिक विचारधारा कहीं ना कहीं किसी उसी पार्टी से मिलती है। जिसे पिछले कुछ सालों में भारी जनाधार हासिल हुआ है। शायद यही वजह रही होगी की बाकी विरोधी पार्टियों ने जनाधार हासिल करने की लिये अपनी विचारधारा से थोड़ा सा हटकर साम्प्रदायिकता की तरफ रुख किया है।

अभी हाल ही में दिल्ली में हुए सांप्रदायिक दंगों को लेकर जिस तरह सिर्फ एक समुदाय विशेष के लोगो पर कार्रवाई की गई है वहीं दूसरे समुदाय के लोगों कार्रवाई करने में हमारा सिस्टम असहाय नज़र आ रहा है।

दिल्ली के निजामुद्दीन मर्कज़ के मामले के खुलासे के बाद देश में कोरोना संक्रमण के लिए एक धर्म विशेष के लोगों को ज़िम्मेदार ठहराने की कोशिश की गई। हालांकि एकतरफा कार्रवाही का यह पहला उदाहरण नहीं है, इससे पहले भी भारतीय मुसलमान एकतरफा कार्रवाही और जानबूझ कर निशाना बनाये जाने के मामलो से रूबरू हो चुका है।

मामला चाहे हाशिमपुरा का रहा हो, मुज़फ्फरनगर का हो या और गुजरात के साम्प्रदायिक दंगो का, इस तरह के सभी मामलों में भारतीय मीडिया ने अपनी ज़िम्मेदारी बड़ी नकारात्मक तरीके से निभाई है।

देश के पेशेवर मीडिया ने मुसलमानों को निशाना बनाने की अपनी नीति को जारी रखा है। यही कारण है कि मौके बे मौके, देश का पेशेवर मीडिया मुसलमानों को ज़लील करने के लिए तारिक फतेह और तस्लीमा नसरीन जैसे लोगों को कार्यक्रमों में आमंत्रित करता है, जिन्हे उनके खुद के देशो ने कोई तरजीह नहीं दी।

इससे यह बात अवश्य साबित होती है कि देश के पेशेवर मीडिया को अपने देश के मुसलमानों पर भरोसा नहीं है बल्कि पड़ोसी देशों के मुसलमानों पर भरोसा है । इसी कड़ी में अरब मुल्कों में रहने वाले हमारे अप्रवासी भारतीय भी किसी से पीछे नहीं रहे हैं। उन्होंने भी समय समय पर ना सिर्फ़ सम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया, बल्कि मुसलमानो की आस्था को चोट भी पहुंचे है। दुबई में रह रहे कुछ अप्रवासी भारतीय तो मुसलमानो के पैग़म्बर मोहम्मद मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहु अलैहिस्सलाम) पर भी टिप्पणियां कर चुके हैं।

मुसलमानो के खिलाफ एक सुनियोजित तरीके से चलाई जा रही नफरत की मुहिम को लेकर खाड़ी देशों में सख्त ऐतराज़ जताया गया है। अभी हाल ही में सयुक्त अरब अमीरात (यूएई) ने कुछ भारतीय कामगारों को इस्लाम के खिलाफ अनावश्यक और नफरत भरे पोस्ट सोशल मीडिया पर शेयर करने के लिए उन्हें नौकरियों से निकाल दिया है।

मेरे अपने निजी विचार के मुताबिक इस्लाम और मुसलमानो के खिलाफ नफ़रत को भारत का अल्पसंख्यक तो सहन कर सकता है, लेकिन दुबई या अरब का नही, वो आपको नौकरी से निकाल देगा।

शायद आज प्रधानमंत्री जी ट्वीट भी इसी पूरे प्रकरण के इर्दगिर्द घूमता है, जिसमे उन्होंने कहा कि कोई भी महामारी धर्म देखकर नहीं फैलती। पीएम मोदी का यह ट्वीट यूएई द्वारा कुछ भारतीयों को नौकरियों से निकालने जाने के बाद आया है।

ऐसे में यदि मीडिया में ज़रा भी शर्म बची है, तो वो अपने किये पर पछतावा करे और भारत की संस्कृति, गंगा जमुनी तहज़ीब को धर्म के आधार पर बांटने की कोशिश करना बंद कर दे। मुझे डर है की इस दो समुदायों की नफ़रत की वहज से खाड़ी देशों में रह रहे हमारे अप्रवासी भाई अपनी नौकरी से हाथ ना धो बैठें, जो कि देशहित में अच्छा नहीं होगा।

अपनी राय कमेंट बॉक्स में दें

TeamDigital