इतिहास: 14 फरवरी1976, जब देश के एक जज को भी दी गई थी फांसी

इतिहास: 14 फरवरी1976, जब देश के एक जज को भी दी गई थी फांसी

ब्यूरो। देश के इतिहास में यूँ तो अब तक कई गुनाहगारो को फांसी दी जा चुकी है, लेकिन एक मामला ऐसा भी है जिसमे एक जज को फांसी दी गई। 14 फरवरी वर्ष 1976 यह वह दिन है जब एक जज को फांसी दी गई थी।

असम के रहने वाले उपेंद्रनाथ राजखोवा का नाम इतिहास में आज भी दर्ज है, जो कभी दूसरो के मुकदमो में फैसले सुनाते थे लेकिन अपनी करतूतों के चलते वे खुद फांसी के फंदे तक पहुँच गए।

उपेंद्रनाथ राजखोवा असम के ढुबरी जिले में जिला एवं सत्र न्यायाधीश के पद पर तैनात थे और सरकारी आवास में रहते थे। उनके परिवार में उनकी पत्नी और तीन बेटियां थीं। उपेन्द्रनाथ 1970 में सेवानिवृत हुए थे और सेवानिवृत होने के बाद कुछ दिनों तक वे सरकारी आवास में ही रहे।

इस बीच आसपास के लोगों ने गौर किया कि उपेंद्रनाथ के घर में उनकी पत्नी और बच्चियां दिखाई नहीं देतीं और न ही वे बाहर निकल रही हैं। इसलिए एक दो पड़ौसी ने उनसे इस संदर्भ में पूछा कि उनकी पत्नी और बच्चियां आजकल कहाँ हैं ? कुछ दिनों तक उपेन्द्रनाथ ऐसे सवालो को बहाना बनाकर टालते रहे लेकिन शक और गहरा न हो इसलिए उन्होंने किसी को बताये बिना जल्द सरकारी आवास खाली कर दिया।

लोगों को ये न बताना पड़े कि वे अब कहाँ शिफ्ट हो रहे हैं, इसलिए उपेन्द्रनाथ ने बड़े गोपनीय तरीके से रातोरात सरकारी आवास खाली किया और वहां से निकल लिए।

एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक घर खाली करने के बाद उपेन्द्रनाथ ने आबादी से दूर एक कमरा किराये पर लेकर वहां अपना सामान रख दिया और खुद इधर उधर होटलो में रुकने लगे।

उपेंद्रनाथ की पत्नी के भाई पुलिस में थे, वे काफी दिनों से इस बात को लेकर परेशान चल रहे थे कि उन्हें उपेन्द्रनाथ (अपने बहनोई) और उपेन्द्रनाथ की पत्नी (अपनी बहिन) के बारे में कोई जानकारी नहीं मिल रही थी। इस दौरान उपेन्द्रनाथ एक दिन सिलीगुड़ी के एक होटल में रुके, इसकी जानकारी उनकी पत्नी के भाई को हुई तो वे कुछ सहयोगी पुलिसकर्मियों के साथ उपेन्द्रनाथ राजखोवा से मिलने होटल पहुंचे।

जब उपेन्द्रनाथ के साले (पत्नी के भाई) ने उनसे अपनी बहिन और भांजियों के बारे में पूछा तो पहले उपेन्द्रनाथ बहाने बनाने लगे, लेकिन कुछ ही देर में उठकर अंदर गये और आत्महत्या करने की कोशिश की। इस दौरान वहां मौजूद उपेन्द्रनाथ की पत्नी के भाई और सहयोगी पुलिसकर्मियों ने उपेन्द्रनाथ को पकड़ लिया और बाद में अस्पताल में भर्ती कराया।

इस घटना के बाद उपेन्द्रनाथ के साले को यह समझते देर न लगी कि दाल में कुछ काला है। इसलिए यह मामला पुलिस तक पहुँच गया और पूछताछ में पूर्व जज उपेन्द्रनाथ राजखोवा ने स्वीकार कर लिया कि उन्होंने अपनी पत्नी और तीनो बच्चियों को मौत के घाट उतार दिया और उनकी लाश सरकारी बंगले में ज़मीन के अंदर दबा दी है। उपेन्द्रनाथ के कुबूलनामे पर पुलिस ने उन्हें जेल भेज दिया।

इस मामले में निचली अदालत ने पूर्व जज उपेन्द्रनाथ राजखोवा को फांसी की सजा सुनाई। उपेन्द्रनाथ राजखोवा ने निचली अदालत के फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती दी लेकिन हाईकोर्ट ने भी उपेन्द्रनाथ राजखोवा की फांसी की सजा को बरकरार रखा।

फांसी के फंदे से बचने के लिए उपेन्द्रनाथ ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा भी खटखटाया लेकिन उनकी सजा कम न हो सकी और अंत में उन्होंने राष्ट्रपति के पास दया याचिका भेजी, लेकिन राष्ट्रपति ने उनकी दया याचिका को अस्वीकार कर दिया और उपेन्द्रनाथ राजखोवा को अपनी पत्नी और तीन बेटियों की ह्त्या के जुर्म में 14 फरवरी, 1976 को जोरहट जेल में फांसी दे दी गई।

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