ज़रूरी नहीं कि नरेंद्र मोदी या राहुल गांधी ही बने पीएम, ये स्थति भी हो सकती है

ज़रूरी नहीं कि नरेंद्र मोदी या राहुल गांधी ही बने पीएम, ये स्थति भी हो सकती है

नई दिल्ली (राजा ज़ैद)। लोकसभा चुनाव के पहले चरण के मतदान में महज कुछ दिन शेष हैं। देश की दो सबसे बड़ी पार्टियों कांग्रेस और बीजेपी के अपने अपने चुनावी घोषणा पत्र जारी हो चुके हैं। नेताओं के दौरे और रैलियां जारी हैं, कुल मिलाकर संक्षिप्त में कहा जाए तो 2019 की सत्ता के लिए बिगुल फूंका जा चूका है।

चुनाव से पहले कई चेनलो ने अपने अपने ओपिनियन पोल दिखाए हैं। अहम बात यह है कि सभी सर्वे लगभग एक जैसे हैं। 130 करोड़ की जनसंख्या वाले देश में पचास हज़ार या एक लाख लोगों से सवाल चंद पूछकर देशभर के मतदाताओं की राय बनाने में कई खेल शामिल होते हैं। ऐसे में चुनाव पूर्व आये सर्वेक्षणों को “दिल बहलाने की खातिर ख्याल अच्छा है ग़ालिब” कहकर छोड़ देना ही बेहतर है।

अब असल मुद्दे पर आते हैं और थोड़ी देर के लिए ये मानकर चलते हैं कि चुनाव परिणामो में न कांग्रेस को बहुमत मिला है और न बीजेपी को। ऐसे में दोनों दल सरकार बनाने और अपनी पार्टी का प्रधानमंत्री बनाने के लिए सहयोगी दलों पर निर्भर होंगे।

एनडीए में बीजेपी के बड़े सहयोगी दलों में शिवसेना, जनता दल यूनाइटेड और एआईएडीएमके शामिल हैं। वहीँ कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए में एनसीपी, राष्ट्रीय जनता दल, डीएमके और जनता दल सेकुलर हैं। वहीँ एक थर्ड फ्रंट भी है जिसमे बसपा, सपा, टीडीपी, आप और टीएमसी हैं। हालाँकि आधिकारिक तौर पर थर्ड फ्रंट का एलान नहीं हुआ है लेकिन कांग्रेस और बीजेपी दोनों से दुरी बनाकर चल रहे दलों की गुटबंदी की पहचान फ़िलहाल थर्ड फ्रंट ही है।

जहाँ तक कांग्रेस का सवाल है तो गांधी-नेहरू परिवार का यह इतिहास रहा है कि जब तक पार्टी को पूर्ण बहुमत न मिले गांधी परिवार का कोई सदस्य प्रधानमंत्री पद स्वीकार नहीं करता बल्कि पार्टी की तरफ से किसी ऐसे व्यक्ति का नाम आगे करता है जो यूपीए में शामिल अन्य दलों को भी स्वीकार हो। पूर्व प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह इसका बड़ा उदाहरण हैं।

इसलिए यदि कांग्रेस अपने बूते सरकार बनाने की स्थति में नहीं आती तो यह तय है कि राहुल गांधी देश के प्रधानमंत्री नहीं होंगे। अब सवाल उठता है कि यदि राहुल गांधी स्वयं पीएम नहीं बनते तो पीएम पद का दावेदार कौन हो सकता है?

जानकारों की माने तो यदि ऐसी स्थति पैदा होती है कि यूपीए घटक दलों की सीटों की संख्या सरकार बनाने के लिए पर्याप्त नहीं होती तो उन दलों का समर्थन हासिल करके सरकार बनाई जाएगी जो यूपीए और एनडीए से दूर हैं। ऐसे में देखना होगा कि सपा, बसपा, टीडीपी और टीएमसी जैसे दलो के सांसदों की संख्या कितनी होती है।

ऐसी स्थति में कांग्रेस की पहली पसंद टीडीपी या टीएमसी से पीएम बनाकर उसे समर्थन देना होगा। कांग्रेस नहीं चाहेगी कि कोई उत्तर भारतीय प्रधानमंत्री बने। इसलिए पीएम पद के लिए कांग्रेस ममता बनर्जी या चंद्रबाबू नायडू का नाम आगे कर सकती है।

ऐसी ही स्थति कुछ एनडीए के साथ भी हो सकती है। सहयोगी दलों को मिलाकर भी पूर्ण बहुमत न होने पर बीजेपी किसी ऐसे घटकदल के नेता का नाम प्रधानमंत्री पद के लिए आगे बढ़ा सकती है जिसकी छवि सेकुलर हो और जो टीएमसी, टीडीपी और सपा बसपा से समर्थन हासिल कर सके। यह नाम नीतीश कुमार का भी हो सकता है।

जानकारों के मुताबिक इस बार यदि बीजेपी की सीटें उम्मीद के मुताबिक नही आतीं तो चुनाव परिणाम आने के बाद बीजेपी और उसके सहयोगी दलों में पीएम नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाये जाने के खिलाफ आवाज़ उठ सकती है।

क्या कहती है ज़मीनी हकीकत:

लोकसभा चुनाव को लेकर अलग अलग चैनलों की अलग अलग राय सामने आयी है। कुछ चैनलों ने अपने सर्वेक्षणों में एनडीए को पूर्व बहुमत से भी अधिक सीटें मिलने की संभावना जताई है। वहीँ दूसरी तरफ कुछ चैनलों ने एनडीए को पूर्व बहुमत से दूर बताया है।

जैसा हमे समझ आता है, इस बार एनडीए की राहें थोड़ी नहीं बल्कि ज़्यादा मुश्किल भरी हैं। विधान सभाओं के आंकलन और विधानसभा चुनाव में पार्टियों को मिले मतों के आंकलन के मुताबिक लोकसभा चुनाव में बीजेपी और कांग्रेस के बीच करीब 25 से 30 सीटों का फैसला हो सकता है। यदि कांग्रेस को 180 सीटें मिलती हैं तो बीजेपी को 210 सीटें तक मिल सकती हैं।

हमारे आंकलन के मुताबिक दोनों ही पार्टियां अपने बूते बहुमत तक नहीं पहुँच सकेंगी। इस चुनाव में न तो यूपीए को पूर्ण बहुमत मिलेगा और न ही एनडीए को। ऐसे में थर्ड फ्रंट वाले दलों की भूमिका बेहद अहम हो जाएगी। हालाँकि ये सिर्फ विधानसभाओं में अलग अलग दलों को मिले वोटों के आंकलन के आधार पर निकला गया एक निष्कर्ष है। राजनीति में स्थतियाँ बदलती रहती हैं। उम्मीदवारों के चयन से भी चुनाव प्रभावित होता है।

कॉर्पोरेट मीडिया कुछ भी कह रहा हो लेकिन ज़मीनी हकीकत यही है कि इस समय देश में किसी दल या किसी नेता के पक्ष में कोई हवा नहीं है। राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय सुरक्षा पर बेरोज़गारी का मुद्दा भारी पड़ता दिख रहा है।

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TeamDigital