मैं डॉक्टर बनना चाहती थी लेकिन……..
ब्यूरो (श्रृंखला पाण्डेय,लखनऊ)। “मैं बड़ी होकर डॉक्टर बनना चाहती थी लेकिन इंटर के बाद मैं रेगुलर नहीं पढ़ सकी क्योंकि गाँव में कोई कॉलेज नहीं था। भाई को आगे की पढ़ाई के लिए शहर भेजा गया था और मुझे बी-ए का प्राइवेट फार्म भरवा दिया गया”। ये कहना है लखनऊ जिले के माल ब्लॉक के केड़वा गाँव की सरोजिनी 20(वर्ष) का ।
सरकार द्वारा बालिका शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए बेटी बचाओ- बेटी पढ़ाओ, छात्रवृत्ति योजना आदि लगातार चलाई जा रही हैं इसके बाद भी अगर आप गाँव जाकर देखें तो ये बेटियां स्कूल व कॉलेज जाने के समय पर आपको घर में ही चूल्हा चौका करते दिखेगीं। इन्हें कौन से स्कूल व कॉलेज जाना है यहां तक की कौन सा विषय पढ़ना है ये इनके भाई व परिवार के अन्य सदस्य तय करते हैं।
कई छात्राओं और अभिभावकों से बात करने पर उन्होंने अपने अलग-अलग पक्ष रखे। एक तरफ जहां लड़कियों की शिकायत रही कि उनके घर वाले उन्हें उनकी मर्जी के विषय नहीं चुनने देते जिससे उनका पढ़ने में मन नहीं लगता वहीं अभिभावकों का कहना था कि नौकरी तो लगनी नहीं है तो थोड़ा बहुत पढ़ा देंते हैं वही बहुत है। उनकी मर्जी का पढ़ाएंगे तो फीस भी ज्यादा, ट्यूशन सुविधा नहीं, स्कूल रोज़ जाना पड़ेगा जैसी कई समस्याएं हैं।
लखनऊ से लगभग 38 किमी दूर दक्षिण दिशा में गोसाईंगंज के अमेठी गाँव की राजदुलारी देवी (65वर्ष) बताती हैं “अगर बेटी को ज्यादा पढ़ाया तो नौकरी वाला लड़का भी तो ढूंढ़ना पड़ेगा शादी के लिए इतना दहेज कहां से देगें। इसलिए थोड़ा बहुत पढ़ाकर शादी करना ही ठीक है” ।
उत्तर प्रदेश में 2011 की जनगणना के अनुसार 65 प्रतिशत पुरुष और 48 प्रतिशत महिलाएं शिक्षित हैं, शहरी क्षेत्रों में (10-19 वर्ष) आयु वर्ग में 83 फीसदी और ग्रामीण क्षेत्रों में 87 फीसदी युवा शिक्षित हैं, जिसमें से 84 फीसदी लड़कियां और 89 फीसदी लड़के शिक्षित हैं। शहरी क्षेत्रों में (15-24 वर्ष) आयु वर्ग में शहरी 82 प्रतिशत और ग्रामीण क्षेत्रों में 81 फीसदी युवा शिक्षित हैं, जिसमें लड़कियों की संख्या 76 फीसदी है और लड़कों की 87 फीसदी है।
हम एक ओर बात करते हैं शिक्षा में गुणवत्ता व समानता की लेकिन यहां आंकड़ें बता रहे हैं कि महिलाएं योजनाएं व सुविधाएं होने के बाद भी शिक्षा से दूर हैं और इसका कारण परिवार के स्तर पर उनके साथ होने वाला भेदभाव है।
मेरठ जिले की मखदुमपुर गाँव के रामकिशन मौर्या (40 वर्ष) का कहना हैं, “आजकल नौकरी तो बहुत मुश्किल से मिलती है, इसलिए वो पढ़ाई कराते हैं जिसमे पैसा भी कम लगे और पढ़ाई भी हो जाए, जितना ज्यादा अच्छी पढ़ाई कराएंगे उतना शादी में दहेज देना पड़ेगा।” वहीं औरैया जिले की मानसी पाल (16 वर्ष) का कहना है, “जब अपनी मां से बहुत जिद की तब कहीं इंटर में मैथ ले पाई, अब बीएससी हमें नहीं कराई जायेगी क्योंकि एडमिशन और ट्यूशन की फीस देने के लिए माँ के पास पैसे नहीं हैं।” वो आगे बताती हैं, “मेरा बी-ए करने का बिल्कुल मन नहीं हैं, अगर बी-ए करने को मना करती हूं तो मेरी आगे की पढ़ाई रुकवा दी जायेगी, इसलिए बिना मन से ही बीए करना पड़ेगा”।
इस बारे में लखनऊ के राम मनोहर लोहिया लॉ विश्वविद्यालय के समाजशास्त्री डॉ संजय सिंह बताते हैं, “अभी भी गाँव के स्तर पर लड़कियों के लिए पढ़ाई प्राथमिकता नहीं है, शादी है। वो उनके भविष्य को पढ़ाई लिखाई से न जोड़कर शादी से जोड़ते हैं। लड़कियों की शिक्षा उनके लिए महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि उनकी ये मानसिकता बन चुकी है कि उन्हें शादी करके दूसरे घर जाना है।”
वो आगे बताते हैं, “अब साक्षरता का आंकड़ा पहले से बेहतर हुआ है क्योंकि सरकार कई योजनाएं व आर्थिक मदद कर रही है लेकिन जब तक हम स्वयं शिक्षा के महत्व को नहीं समझेगें ये संभव नहीं होगा महिला पुरूष दोनों समान रूप से साक्षर हो।” और जब तक ऐसा नही होगा महिला दिवस का कोई महत्व ही नही रह जाता।
(चरखा फीचर्स)