नोट बंदी पर अपने ही आंकड़ों के जाल में उलझी सरकार

नोट बंदी पर अपने ही आंकड़ों के जाल में उलझी सरकार

नई दिल्ली (राजा ज़ैद)। 8 नवंबर वर्ष 2016, समय रात 8 बजे, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश में एक हज़ार और पांच सौ रुपये के नोटों के चलन पर पाबंदी का एलान किया। आम जनता को यह समझने में थोड़ी देर लगी कि अचानक आखिर ऐसी क्या आवश्यकता पैदा हुई कि प्रधानमंत्री ने टीवी पर आकर नोट बंदी का एलान कर दिया।

प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद ही एटीएम पर लोगों की लाइने लगनी शुरू हो गयीं। आम जनता के सामने दो मुश्किलें थीं, पहली यह कि पुराने नोटों को बदलवाने के लिए बैंक की लम्बी लाइन में लगना और दूसरी बैंको, एटीएम से आवश्यकता अनुसार नगदी न मिल पाना।

9 नवंबर 2016 से बैंको और एटीएम पर लगना शुरू हुई कतारें दो महीने से अधिक समय तक जारी रहीं। हालाँकि सरकार का दावा था कि नोट बंदी के बाद पैदा हुए हालात 50 दिनों में सामान्य हो जायेंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

नोटबंदी के बाद गोवा में दिए गए भाषण में स्वयं प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि मैंने देश से सिर्फ़ 50 दिन मांगे हैं और इसके बाद कहीं कमी रह जाए तो देश जो सज़ा देगा, मैं उसे भुगतने को तैयार हूं।

नोट बंदी लागू होने के बाद जहाँ सरकार ने नोट बंदी लागू करने को लेकर कई कारण गिनाये वहीँ विपक्ष ने नोट बंदी को अनावश्यक कदम बताया। नोट बंदी के एक वर्ष बाद भी सरकार अपने दावों को सही ठहरा रही है। हालाँकि नोट बंदी को लेकर सरकार की तरफ से जो आंकड़े दिए जा रहे हैं वे सच्चाई से मेल नहीं खाते इसके बावजूद सरकार नोट बंदी को लेकर अपने दावों पर अड़ी है।

दिसंबर 2016 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी को ‘यज्ञ’ क़रार देते हुए कहा था कि इस फ़ैसले से किसानों, व्यापारियों और श्रमिकों को फ़ायदा होगा। मगर व्यापारियों, किसानों और श्रमिकों का बड़ा वर्ग इस क़दम की आलोचना करता रहा है।

नोट बंदी लागू करने के पीछे मोदी सरकार का अहम दावा था कि इससे काले धन पर रोक लगेगी। सरकार के इस दावे को और पुख्ता करने के लिए स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त, 2017 को लाल किले से दिए भाषण में एक गैर सरकारी रिसर्च का हवाला देते हुए कहा था कि 3 लाख करोड़ रुपया, जो कभी बैंकिंग सिस्टम में नहीं आता था, वह आया है। लेकिन प्रधानमंत्री का ये दावा रिज़र्व बैंक के वार्षिक आंकड़ों से मेल नहीं खाता।

आरबीआई की रिपोर्ट कहती है कि नोटबंदी के बाद चलन से बाहर किए गए 500 और 1000 रुपये के पुराने नोटों में से लगभग 99 फ़ीसदी बैंकिंग सिस्टम में वापस लौट आए हैं। इसलिए यहाँ यह सवाल उठना लाजमी है कि यदि 99 फीसदी पुराने नोट वापस आ गए हैं तो काला धन कहां छिपा है ?

नोट बंदी लागू करने के पीछे सरकार ने दूसरा अहम कारण जाली नोटों के चलन को रोकना बताया था जबकि बीबीसी के अनुसार आरबीआई को इस वित्तीय वर्ष में 762,072 फर्ज़ी नोट मिले, जिनकी क़ीमत 43 करोड़ रुपये थी। इसके पिछले साल 632,926 नकली नोट पाए गए थे. यह अंतर बहुत ज़्यादा नहीं है।

नोट बंदी को लागू करने के पीछे सरकार ने जो तीसरा तर्क दिया था वह आतंकवाद और नक्सलवाद की कमर तोडना था। सरकार की तरफ से दावा किया गया था कि नोट बंदी से आतंकियों और नक्सलियों को होने वाली टेरर फंडिंग रुकेगी। इससे आतंकवाद और नक्सल गतिविधयों पर लगाम लगायी जा सकेगी।

स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि इससे आतंकवाद और नक्सलवाद की कमर टूट जाएगी क्योंकि इन्हें जाली करंसी और काले धन से मदद मिलती है। लेकिन ऐसा कुछ खास असर देखने को नहीं मिला। नोट बंदी के बाद भी जम्मू कश्मीर में आतंकी घटनाएं लगातार होती रही हैं। वहीँ नोटबंदी के बाद पकड़े गए नकली नोटों की संख्या पिछले सालो से कुछ ही ज़्यादा है।

नोट बंदी को लेकर सरकार ने जो भी दावे किये हों लेकिन एक दुखद सच्चाई यह भी है कि नोट बंदी के चलते आम आदमी को भारी मुश्किलें झेलनी पड़ी। अपनी मेहनत के पैसे को बैंक से निकालने के लिए आम आदमी को कई कई घंटे लाइनों में लगना पड़ा। जिसने नोट बंदी की पीड़ा को झेला है वह आसानी से 8 नवंबर को नहीं भुला सकेगा।

 

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