तब बीजेपी ने किया था राम मंदिर के लिए अध्यादेश लाने का विरोध
नई दिल्ली। वर्ष 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद देश के हालातो में तेजी से साम्प्रदायिकता का ज़हर फ़ैल चूका था। देश के मुसलमान खुद को असुरक्षित महसूस करने लगे थे। केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी और कांग्रेस को मृत्यु शैया पर पहुंचाने वाले नरसिम्हाराव प्रधानमंत्री थे।
देश से मंदिर मस्जिद विवाद समाप्त करने के लिए तत्कालीन गृह मंत्री एस बी चव्हाण ने पीएम नरहिमहाराव को एक प्रस्ताव सुझाया था। यह प्रस्ताव अध्यादेश लाकर विवादित स्थल की कुछ ज़मींन का अधिग्रहण कर अलग राम मंदिर निर्माण के करने का था।
बताया जाता है कि इस प्रस्तावित बिल को लेकर नरसिम्हाराव केबिनेट में चर्चा होने से पहले गृहमंत्री एसबी चव्हाण और पीएम नरसिम्हाराव के बीच कई मुलाकातें हुईं। इसके बाद इस बिल को अमली जामा पहनाने की तैयारियां शुरू की गयीं।
उस समय तत्कालीन गृह मंत्री एसबी चव्हाण का कहना था कि देश में परस्पर भाईचारा बनाये रखने के लिए ज़रूरी है कि राम मंदिर मामले का सर्वसम्मत हल निकाल जाए। जिससे यह मामला अधिक लम्बा न खिंच सके।
कहा जाता है कि एसबी चव्हाण दूरदर्शी थे, वे समझ चुके थे कि यदि राम मंदिर मामला जल्द हल नहीं हुआ तो बीजेपी इसका राजनैतिक फायदा सालो साल उठाती रहेगी। इसलिए जल्द ही राम मंदिर निर्माण के लिए बिल तैयार किया गया।
यह वह समय था जब शंकरदयाल शर्मा देश के राष्ट्रपति थे। जनवरी 1993 में यह अध्यादेश लाया गया. तत्कालीन राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने 7 जनवरी 1993 को इसे मंजूरी दी थी। राष्ट्रपति से मंजूरी के बाद तत्कालीन गृहमंत्री एसबी चव्हाण ने इस बिल को मंजूरी के लिए लोकसभा में रखा गया।
यह बिल लोकसभा में पास हो गया और इस बिल को अयोध्या अधिनियम के तौर पर शामिल किया गया। अयोध्या अधिनियम बिल विवादित ढांचे और इसके पास की जमीन को अधिग्रहित करने के लिए लाया गया था। नरसिम्हा राव सरकार ने 2.77 एकड़ विवादित भूमि के साथ इसके चारों तरफ 60.70 एकड़ भूमि अधिग्रहित की थी।
इस बिल के ज़रिये नरसिम्हाराव सरकार की योजना थी कि अयोध्या में एक राम मंदिर, एक मस्जिद, लाइब्रेरी, म्यूजियम और अन्य सुविधाओं के निर्माण किया जाए।
अयोध्या अधिनियम बिल से भी अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का रास्ता साफ़ नहीं हो सका। इसका बड़ा कारण बीजेपी द्वारा इसका विरोध करना और बीजेपी नेताओं द्वारा इस बिल को लेकर गलत बयानी कर साधू संतो को भड़काना था। हालाँकि बीजेपी के साथ ही कुछ मुस्लिम संगठनों ने भी इस बिल पर एतराज जताया था।
बीजेपी ने अयोध्या अधिनियम को यह कह कर खारिज कर दिया कि यह पक्षपातपूर्ण तरीके से तैयार किया गया है। इस बिल में हिन्दुओं की भावनाओं की अनदेखी की गयी है।
मामला विवादित होता देख नरसिम्हाराव सरकार ने इस बिल को लेकर सुप्रीमकोर्ट से राय मांगी लेकिन सुप्रीमकोर्ट ने इस बिल पर कोई राय देने से इंकार कर दिया।
दरसल बीजेपी के विरोध के बाद सरकार जानना चाहती थी कि क्या विवादित ज़मीन पर कोई हिंदू मंदिर या कोई हिंदू ढांचा था ? लेकिन कानून के जानकारों की माने तो यह सवाल इतना आसान नहीं था कि इसका जबाव बहुल जल्द दिया जा सके।
सुप्रीमकोर्ट के पांच जजों की बैंच ने इस मामले पर कोई राय नहीं दी बल्कि सुप्रीम कोर्ट ने अधिग्रहित जमीन पर एक राम मंदिर, एक मस्जिद एक लाइब्रेरी और दूसरी सुविधाओं का इंतजाम करने की बात का समर्थन किया साथ ही यह भी कहा था कि यह राष्ट्रपति के लिए बाध्यकारी नहीं है। इस तरह अयोध्या अधिनियम व्यर्थ साबित हुआ।
अब मोदी सरकार पर है अध्यादेश लाने का दबाव:
अयोध्या की विवादित भूमि को लेकर मामला सुप्रीमकोर्ट में लंबित है। मामला भूमि के मालिकाना हक़ से जुड़ा होने के कारण सुप्रीमकोर्ट के लिए सभी पक्षों को सुनना और भूमि के मालिकाना हक के दावे वाले दस्तावेजों का अध्यन करना भी आवश्यक है। इसलिए फैसला आने में देरी होना स्वाभाविक है।
ऐसे में आरएसएस और हिन्दू संगठन मोदी सरकार पर राम मंदिर निर्माण के लिए अध्यादेश लाने के लिए दबाव बना रहे हैं। आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और बाबरी मस्जिद मामले से जुड़े वरिष्ठ अधिवक्ता जफरयाब जिलानी पहले ही कह चुके हैं कि राम मंदिर निर्माण के लिए सरकार अध्यादेश ला सकती है लें इस अध्यादेश को सुप्रीमकोर्ट में चुनौती दी जा सकती है।
यानि यह ज़रूरी नहीं कि अध्यादेश लाये जाने के बाद भी अयोध्या विवाद का निपटारा हो जाए और राम मंदिर बन जाए। कानून के जानकारों की माने तो सरकार द्वारा लाये गए अध्यादेश पर सुप्रीमकोर्ट सुनवाई पूरी होने तक स्टे भी दे सकता है। फिलहाल देखना है कि राम मंदिर और अयोध्या को लेकर सरकार का अगला कदम क्या होता है।