कभी बर्फ से दबे, कभी पानी में बहे- हम पहाड़वासी
ब्यूरो (विपिन जोशी द्वारा) । 2013 की आपदा का जख्म अभी पूरी तरह भरा भी नहीं कि 2016 का मानसून पहले ही चरण में तबाही के संकेत देने लगा। हजारों मौतें हुई। पूर्व में आयी तमाम आपदाओं से किसने क्या सीखा यह चर्चा का बिन्दु हो सकता है। लेकिन समझने वाली बात यह है कि अक्सर सरकारें आपदा के बाद क्यों जागती हैं।
आपदा या बारिश से पहले भी तो उपाय किये जा सकते हैं। अखबार ने चेताया कि नदियों के बदलते रूट किसी भारी तबाही का संकेत हैं। अधिकांश नदियों पर जमाव की स्थिति है। खनन और अत्यधिक दोहन इसके लिए जिम्मेदार है। केदारनाथ आपदा के बाद भारी जनहानी हुई और पहाड़ की भौगोलिक स्थिति भी बदल गई। आज हालात चिन्ताजनक हैं। नए भूस्खलन के इलाके बन रहे हैं।
मंदाकिनी में सोन प्रयाग में 5 मीटर तक की गाद जमा है और करीब 5 मीटर तक नदी की धारा ने अपना रास्ता बदला है। यही हाल उत्तराखण्ड की अन्य नदियों का है।
आपदा बता कर नहीं आती। बिन बुलाए मेहमान की तरह आती है और दे जाती है कभी न भरने वाले जख्म। इसलिए आपदा से पूर्व कुछ ठोस कदम उठाये जाने बेहद जरूरी हैं। एक सवाल मन में कौंधता है कि विकास की धारा के साथ बहते हुए हम नदियों के उफनते वेग में क्यो बह रहे हैं । सड़के पहले भी बनती थी मैनुअल तरीके से। सड़क बनाने के लिए चट्टानें तो टूटी लेकिन विस्फोट के बाइबेरेशन से उपरी पहाड़ के हिस्से भी तो कमजोर होते गये। जिस गति से जंगलों का दोहन विकास के नाम पर हुआ, उसकी तुलना में पेड़ लगाने और उनको संरक्षित करने की गति बहुत धीमी रही।
पर्यावरण संरक्षण महज नारों और प्रेस वार्ता तक सिमट गया। पहाड़ को बचाने की मुहिम पहाड़वासियों को ही करनी होगी, क्योंकी “जा तन लागी वो ही जाने” या जिसकी लड़ाई उसकी अगुवाई को आधार बनाना होगा। इस वर्ष अप्रैल और मई में उत्तराखण्ड भंयकर रुप से धधकता रहा। जंगल जले साथ ही वनस्पतियां और वृक्षों की लंबी श्रृंखलाएं भी जल कर खाक हो गई।
वर्षा आयी और पहाड़ व जंगल की उपरी सतह की कीमती मिट्टी को बहा ले गई। इस बात का एहसास तब हुआ जब अपने घर के पास बहती नदी के पानी को गौर से देखा। रात की बारिश से बरसाती नदी उफान पर थी और उसका पानी मटमैले गहरे काले रंग में बदल गया था। मतलब साफ था कि जंगल जले तो मिट्टी भी बहती है और चट्टानें दरकती हैं। यानी सब एक दूसरे से जुड़े मसले हैं। हम यह नहीं कह सकते कि हम तो नदियों में खनन कर रहे हैं इसका पहाड़ के दरकने से क्या कनेक्शन?
इस बार 1 जुलाई, 2016 को जनपद पिथौरागढ़ के विभिन्न इलाकों में भारी बारिश के बाद खूब तबाही हुई। मरने वालों की संख्या 30 को पार कर गई। उत्तराखण्ड सरकार हमेशा आपदा के बाद ही सचेत होती है, ऐसा क्यों ? जबकी सम्पूर्ण उत्तराखण्ड प्राकृतिक आपदा की दृष्टि से खतरनाक जोन में आता है। भूकम्प, बारिश, जंगल की आग, बर्फबारी यानी हर मौसम में खतरे का अलार्म उत्तराखण्ड वासियों को बेचैन करता है। इस बार सरकार और प्रशासन तब हरकत में आये जब जानें चली गई, भारी नुकसान हो गया। लोगों को अपना घर छोड़ रिश्तेदारो और सरकारी भवन में शरण लेनी पड़ी।
जनपद पिथौरागढ़, तहसील थल के आमथल में कभी भी आपदा नही आई थी। दो-तीन साल पहले यहां सड़क निर्माण का काम चला है। सड़क बनाने के लिए चट्टानें तोड़ी गई हैं। विस्फोटकों का प्रयोग भी संभवतः हुआ, उसके कितने प्रभाव यहां की जमीन में पड़े यह अध्ययन का विषय है। 30 जून की रात आमथल गांव के 20 परिवार गहरी नींद में सोये थे कि अचानक रात 10 बजे गांव के उपर से पहाड़ का मलबा आता है और 5 घरों को पूरी तरह जमींदोज कर जाता है। खुशकिस्मती रही कि लोग बच गये। लेकिन मवेशी और घर का सारा सामान दफन हो गया। गांव रहने लायक नहीं रहा। किसी तरह लोगों ने भागकर जान बचाई और अब वह गांव से पलायन करने को मजबूर हैं।
आम आदमी अपनी जिन्दगी की पूरी कमाई घर बनाने में लगाता है। खेती और पशुधन के आधार पर अपना घर चलाता है पर आपदा के बाद प्रशासन की ओर से क्या मिलता है? बात करें आम थल गांव की तो यहां 20 परिवार रहते हैं। इनका कहना है कि सरकार आपदा राहत के नियमों में लचिलापन लाये। जबकि प्रशासन का कहना है कि जबतक भवन पूरी तरह क्षतिग्रस्त न हो जाये तब तक कैसा मुआवजा ?
मुख्य बात यह है कि संवेदनशील और हाईअलर्ट उत्तराखण्ड के प्रभावित गांवो को तुरन्त विस्थापित किया जाये। हल्की दरार वाले घर भी रहने लायक नहीं हैं। प्रशासन के जिम्मेदार पदों पर बैठे कर्मचारी, अधिकारी वर्ग भी संवेदनशीलता दिखाते हुए सौम्यता से बरताव करें। आपदा के दौर में यह समझने की कोशिश करें कि किसी इंसान के लिए उसके खेत, मकान, मवेशी उसके जिन्दा रहने के एक मात्र आधार होते हैं।
यही उनकी रोजी- रोटी है। इसलिए समय रहते आपदा राहत कार्य को पूरा किया जाये। जनता सिर्फ वोट नहीं होती इनके अन्दर संवेदना, भावना, निर्णय लेने की क्षमता भी होती है। इससे पूर्व कि सूबे की प्रभवित जनता आंदोलन करने पर उतारू हो उनके जख्मों पर मरहम लगाना जरूरी है।
लेखक : विपिन जोशी (उत्तराखंड)
(चरखा फीचर्स)