गुजरात चुनाव: ये 5 फेक्टर हो सकते बड़े टर्निंग पॉइंट
नई दिल्ली: गुजरात विधानसभा चुनावो के लिए अभी चुनावी कार्यक्रम की घोषणा नही हुई है लेकिन राज्य में सत्ताधारी बीजेपी और मुख्य विपक्षी कांग्रेस ने अभी से ही राज्य का माहौल गर्मा दिया है. गुजरात में बीजेपी ने वर्ष 2002 में 127 सीटें, साल 2007 में 117 सीटें और साल 2012 में 116 सीटें जीती थीं.
यदि महंगाई जैसे राष्ट्रीय मुद्दों को छोड़ भी दिया जाए तब भी स्थानीय स्तर पर कई मुद्दे ऐसे हैं जो किसी न किसी तरह राष्ट्रीय मुद्दों से जुड़े हुए हैं.
इस बार चुनाव में बीजेपी के लिए 87 सीटें ऐसी हैं जहाँ यदि बीजेपी का प्रदर्शन अच्छा नही रहा तो उसका सत्ता से बाहर होना तय है, वहीँ इन सीटों पर बीजेपी का ख़राब प्रदर्शन कांग्रेस के लिए बड़ा टर्निंग पॉइंट साबित हो सकता हैं.
इन 87 सीटों में सौराष्ट्र की 48, कच्छ की 10 विधानसभा सीटें और दक्षिण गुजरात की 29सीटें शामिल हैं. इनमे से सौराष्ट्र की अधिकांश सीटें ऐसी हैं जहाँ पाटीदार पटेल समुदाय के मतदाता हार जीत को प्रभावित करते हैं. वहीँ दक्षिण गुजरात की कम से कम 20 सीटें ऐसी हैं जिस पर पाटीदार पटेल के अलावा दलित, पिछड़ा फेक्टर भी बीजेपी के लिए बड़ी चुनौती बन सकता है.
पाटीदारो की नराजगी:
गुजरात में पाटीदार समुदाय के लिए आरक्षण की मांग को लेकर बड़ा आन्दोलन खड़ा करने वाले हार्दिक पटेल सौराष्ट्र के गाँव देहात के इलाको में सभाएं कर बीजेपी को वोट न देने की अपील कर रहे हैं.
हार्दिक पटेल अपने समुदाय के लोगों को बता रहे हैं कि किस तरह बीजेपी उनके वोटो का उपयोग कर राज्य में सरकार बनाती रही है लेकिन पाटीदार समुदाय के लिए बीजेपी ने कुछ नही किया.
सौराष्ट्र और दक्षिण गुजरात के इलाको में पाटीदार पटेल कई सीटों पर हार-जीत तय करने की निर्णायक भूमिका में होते हैं. ऐसे में पाटीदार समुदाय का बीजेपी से दूर जाना पार्टी के लिए सौराष्ट्र और दक्षिण गुजरात में बड़ी मुश्किल बन सकता है.
पिछले विधानसभा चुनाव में सौराष्ट्र की 58 सीटों में बीजेपी को 35, कांग्रेस को 16 और जीपीपी को दो सीटें मिलीं थीं। वहीँ दक्षिण गुजरात की 35 सीटों में बीजेपी को 28 सीटों पर जीत हासिल हुई थी तथा मध्य और उत्तर गुजरात की 93 सीटों में से 53 सीटों पर बीजेपी ने विजय हासिल की लेकिन इस बार इस इलाके को फतह करना बीजेपी के लिए इतना आसान नही होगा.
बीजेपी के विकास के दावो पर पानी फिरा:
बीजेपी गुजरात के जिस विकास मॉडल का प्रचार देशभर में करती थी फ़िलहाल यह मुद्दा अब गुजरात में बेअसर होता दिख रहा है. बीजेपी के विकास के दावो पर कांग्रेस के कैंपेन ने पानी फेर दिया है.
इतना ही नही कांग्रेस के कैंपेन को बड़ी सफलता भी मिल रही है. खास बात यह है कि सोशल मीडिया से शुरू हुआ यह कैंपेन अब ज़मींन तक आ पहुंचा है. कांग्रेस इस कैंपेन से युवाओं को जोड़ने में सफल रही है जो बीजेपी के लिए बड़े खतरे के संकेत हैं.
दलितो में जागरूकता और बीजेपी से नाराज़गी:
गुजरात के ऊना में दलितों के साथ हुई मारपीट का मामला पूरे गुजरात में फ़ैल चुका है जिसके चलते दलितों में बड़ी जागरूकता आई है. कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि गुजरात के दलितों में बीजेपी से नाराज़गी है और चुनाव में वे बीजेपी के खिलाफ अपने मत का इस्तेमाल ज़रूर करेंगे.
हालाँकि पिछले कुछ महीनो के दौरान बीजेपी ने दलितों को रिझाने में अपनी पूरी ताकत झोंक दी है लेकिन दलितों को रिझाने के बीजेपी नेताओं के प्रयास कितने सफल हुए ये चुनाव परिणामो से ही पता चलेगा.
इतना ही नही दलितों को पोजिटिव सन्देश देने के लिए बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने कई राज्यों में अपने कार्यक्रमों के दौरान दलितों के यहाँ भोजन भी किया लेकिन ऊना काण्ड का वायरल हुआ वीडियो बीजेपी की दलितो को मनाने की कोशिशो पर भारी पड़ रहा है. गुजरात विधानसभा की 182 सीटों में से 27 सीटें आरक्षित उम्मीदवारों के लिए हैं, इनमे से 14 सीटों पर बीजेपी के विधायक हैं.
सरकार विरोधी लहर:
जानकारों की माने तो अब गुजरात में सरकार विरोधी बयार बहना शुरू हो गयी है. पिछले एक दशक से अधिक समय तक सत्ता में बने रहने के बाद इस चुनाव में बीजेपी के खिलाफ एंटी इनकमबेंसी एक बड़ा फेक्टर साबित हो सकता है.
किसान और युवाओं में नाराज़गी:
किसानो को क़र्ज़ में राहत और युवाओं को रोज़गार न मिलना बीजेपी के दो बड़े नेगेटिव फेक्टर हैं. नोटबंदी के दौरान गुजरात में कई कंपनियों में तालाबंदी के चलते कर्मचारियों की छटनी और कंपनियोंके बंद होने से बेरोजगार हुए युवाओं में खासी नाराज़गी है. वहीँ किसानो पर क़र्ज़ का बढ़ता बोझ और उन्हें राहत न मिलने से राज्य के किसान भी बीजेपी सरकार से खासे नाराज़ बताये जाते हैं.
नोटबंदी और जीएसटी से नाराज़ कारोबारी:
केंद्र की मोदी सरकार द्वारा देश में लागू की गयी नोटबंदी और जीएसटी से छोटे और मध्यम कारोबारी बीजेपी से नाराज़ बताये जाते हैं. कारोबारियों का यह वर्ग कभी बीजेपी का परम्परागत वोट हुआ करता था.
हालाँकि अभी चुनावो में कुछ समय बाकी है और थोड़े से बचे समय में बीजेपी अपनी वापसी के लिए पूरा ज़ोर अवश्य लगायेगी। लेकिन ज़मीनी हकीकत कह रही है कि इस बार जनता के मूड में बड़ा बदलाव हुआ है। पिछले चुनावो की तरह इस चुनाव में एकतरफा जीत पाने का सपना बुनना बीजेपी के लिए लोहे के चने चबाने से कम नहीं होगा।