महिला समानता दिवस: महिलाओं के साथ भेदभाव करता है समाज
ब्यूरो (नरेन्द्र सिंह बिष्ट, नैनीताल, उत्तराखंड)। भारत में हिंसा के सबसे अधिक केस महिलाओं से ही जुड़े होते हैं। जिनका रूप कुछ भी हो सकता है। हालांकि पुरूष प्रधान इस देश में हमेशा महिलाओं को देवी का दर्जा दिया जाता रहा है। लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू यह भी है कि पुरुषों की तुलना में महिलाओं को कमतर आंका जाता है। उसे कमज़ोर, असहाय और अबला समझ कर उसके साथ कभी दोयम दर्जे का तो कभी जानवरों से भी बदतर व्यवहार किया जाता है।
पुरुषवादी समाज उसे बेटी के रूप में पैतृक संपत्ति से भी वंचित रखना चाहता है। जबकि परिवार में बेटी एक दायित्व के रूप में होती है। इसके बावजूद घर के लड़कों से उसे कमतर समझा जाता है। उसका मुकाम पुरूषों से नीचे और अधीनस्थ ही माना जाता है। इसीलिए लड़कियों को शिक्षा के साथ उसके निर्णय क्षमता का समाज में कोई स्थान नहीं था। उसका सम्मान किसी के लिए कोई अहमियत नहीं रखता है। सवाल यह उठता है कि महिलाओं के प्रति समाज की सोच नकारात्मक क्यों है? कचरे के ढ़ेर में फेंके जाने वाले नवजातों में 97 प्रतिशत लड़कियां ही क्यों होती हैं?
भारत में जन्म से ही महिला हिंसा के विभिन्न रूप देखने को मिलते हैं। शहर हो या गांव, शिक्षित वर्ग हो या अशिक्षित, उच्च वर्ग हो या निम्न आर्थिक वर्ग, पैसे वाले हों अथवा दो वक्त की रोटी का मुश्किल से जुगाड़ करने वाला परिवार, संगठित हो या असंगठित क्षेत्र सभी जगह महिला हिंसा की प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष स्वरूप देखने को मिल जाता है।
सभ्य और विकसित समाज में जहाँ आज महिलाएं अपने अस्तित्व की जंग लड़ने में सक्षम हो रही हैं, वहीं इस समाज में उन पर सुरक्षा, शिक्षा, स्वास्थ्य व आर्थिक हिंसा के प्रत्यक्ष उदाहरण प्रतिदिन देखने या सुनने को मिल ही जाते हैं। सच तो यह है कि यदि महिला अपराधों की जानकारी अखबारों में छपनी बंद हो जाये तो देश के सभी प्रमुख अख़बार 3-4 पन्नों में ही सिमट कर रह जायेंगे।
नारी सुरक्षा की दृष्टि से देखें तो देश की राजधानी दिल्ली महिलाओं के लिए सर्वाधिक असुरक्षित राज्यों की श्रेणी में है जबकि उत्तराखण्ड उन चंद राज्यों में एक है, जिसे महिलाओं के लिए अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित राज्य माना जाता है। हालांकि सत्य का एक दूसरा पहलू यह भी है कि महिलाओं को रोज़गार उपलब्ध कराने में उत्तराखंड काफी पीछे है जबकि इस श्रेणी में दिल्ली काफी आगे है।
रोज़गार देने के मामले में दिल्ली में जहां महिला और पुरुष में कोई अंतर नहीं देखा जाता है वहीं उत्तराखंड में यह प्रवृति काफी प्रभावी है। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की रिर्पोट के अनुसार 29 राज्यों की सूची में महिला सुरक्षा में उत्तराखण्ड देश में 13वें पायदान पर है, जबकि शिक्षा एवं स्वास्थ के मुद्दे पर देश भर में यह 10वें पायदान पर है। इस आधार पर यदि हम आंकलन करें तो स्पष्ट है कि भले ही उत्तराखंड में महिलाओं को पुरुषों से कमतर आंका जाता है, लेकिन समाज में उसके शिक्षा और स्वास्थ्य की चिंता की जाती है और उसकी देखभाल करने का प्रयास किया जाता है। ऐसे में यदि उत्तराखंड समाज की महिलाएं पहल करें तो समाज में उन्हें बराबरी का हक़ मिल सकता है।
स्वास्थ्य की दृष्टि से भारत मातृ मृत्यु दर में दुनिया में दूसरे नम्बर पर है। जो इस बात को दर्शाता है कि आज भी भारतीय समाज में महिलाओं को परिवार के भीतर पोषण संबंधी भेदभाव का सामना करना पड़ता है। गर्भ धारण से लेकर प्रसव के अंतिम अवस्था तक उसे घर के सारे काम करने होते हैं जबकि इस तुलना में उसे बहुत कम पौष्टिक आहार प्राप्त होता है। जिससे न केवल उसके अंदर खून की कमी होती है बल्कि माँ और बच्चे दोनों की जान को खतरा बना रहता है।
गर्भावस्था में एक महिला को सबसे अधिक मानसिक रूप से स्वस्थ्य रहने की आवश्यकता होती है। लेकिन अफ़सोस कि बात यह है कि ज़्यादातर महिलाएं बेटी के जन्म का सोच सोच कर तनाव में रहती है क्योंकि जो महिलाएं अधिक से अधिक बेटे को जन्म देती हैं उन्हें बेटी जन्म देने वाली माताओं से अधिक सम्मान प्राप्त होता है। जो हमारे समाज में बेटे और बेटी के प्रति संकीर्ण मानसिकता को दर्शाता है।
महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव ज़्यादातर कम साक्षरता दर वाले राज्यों में अधिक देखने को मिलते हैं। जिन राज्यों में साक्षरता दर अधिक है वहां भेदभाव और हिंसा के मामले कम दर्ज हुए हैं। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण केरल और लक्षद्वीप है जहां महिलाओं की बेहतर सामाजिक और आर्थिक स्थिति के पीछे प्रमुख कारक साक्षरता है।
विशेषज्ञों के अनुसार भारत में महिला शिक्षा के लिए मुख्य बाधा स्कूलों में लड़कियों के लिए पर्याप्त सुविधाओं की कमी का होना है। देश के कई छोटे शहरों में माहवारी के समय लड़कियाँ स्कूल नहीं जाती हैं। धीरे धीरे यही प्रवृति उसे स्कूल से दूर करती चली जाती है। हालांकि इस संबंध में कई राज्य सरकारों द्वारा सकारात्मक कदम उठाते हुए स्कूलों में सेनेट्री नैपकिन उपलब्ध कराने की योजना चलाई जा रही है, जो लड़कियों के ड्राप आउट के आंकड़ा को कम करने में कारगर सिद्ध हो रहा है।
उत्तराखण्ड शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में भले ही 10वें पायदान पर क्यों न हो, लेकिन आज भी पर्वतीय महिलाएं सरकार की अधिकांश योजनाओं का लाभ उठाने से वंचित रह जाती हैं।
कई महिलाएं जानकारियां होने के बावजूद लाभ पाने की प्रक्रिया से अभिनज्ञ होने के कारण इससे वंचित रह जाती हैं। वहीं शिक्षा प्राप्त करने के मामले में लड़कियाँ इंटर तक ही पहुँच पाती हैं। इसके आगे पारिवारिक ज़िम्मेदारी के कारण उन्हें उच्च शिक्षा छोड़नी पड़ती है। इंटर के बाद स्नातक और उससे आगे की शिक्षा तक बहुत कम लड़कियों को अवसर प्राप्त हो पाता है। ज़्यादातर लड़कियों को शादी के बाद अपनी इच्छा के विरुद्ध पढ़ाई छोड़नी पड़ती है।
हालांकि उन्हें अवसर मिले तो वह भी अपना हुनर और कौशल का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर सकती हैं। ऐसी कई लड़कियों की मिसाल है जिन्होंने अवसर मिलने पर सेना, विज्ञान, अर्थशास्त्र, डॉक्टर और संघ लोक सेवा आयोग की कठिन परीक्षा पास कर अपनी क्षमता का लोहा मनवाया है।
बहरहाल, महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव के लिए केवल समाज को ही दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। भेदभाव की शुरुआत माँ बाप से बेटा और बेटी के बीच अंतर से शुरू होती है। बेटी को कमज़ोर ठहरा कर उसे चहारदीवारी में कैद करने और बेटे को मनमर्ज़ी की आज़ादी देने से होती है। जिसे समाप्त करना स्वयं मां बाप की ज़िम्मेदारी है। भला यह कैसे संभव है कि बेटा अभिमान और बेटी बोझ बन जाये? ज़रूरत है इस संकीर्ण सोच को बदलने की। ज़रूरत है बेटा की तरह ही बेटी को भी सभी अवसर उपलब्ध करवाने की। उसे भी खुले आसमान में उड़ने और अपनी प्रतिभा दिखाने का भरपूर देने की। वक्त आ गया है कि अब महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव को पूरी तरह से समाप्त किया जाये। (यह आलेख संजॉय घोष मीडिया अवार्ड 2019 के अंतर्गत लिखी गई है)