जनसंख्या नियंत्रण: सरकार से मेल नहीं खाती भागवत की राय, SC में सरकार दे चुकी है ये हलफनामा

नई दिल्ली। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) प्रमुख मोहन भागवत ने नागपुर में विजय दशमी के अवसर पर आयोजित संघ के एक कार्यक्रम में जनसंख्या नियंत्रण के लिए एक समग्र नीति बनाने की आवश्यकता पर बल दिया था।
उन्होंने कहा था कि भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश में आर्थिक तथा विकास नीति रोजगार- उन्मुख हो, यह अपेक्षा स्वाभाविक ही की जाएगी लेकिन रोजगार का मतलब केवल नौकरी नहीं है, …यह समझदारी समाज में भी बढ़ानी पड़ेगी।
हालांकि संघ प्रमुख मोहन भागवत के बयान से काफी पहले सरकार सुप्रीमकोर्ट में हलफनामा देकर यह कह चुकी है कि वह दंपतियों को कम बच्चे पैदा करने के लिए बाध्य नहीं कर सकते।
दिसंबर 2020 में सरकार की तरफ से सुप्रीमकोर्ट में दाखिल किये गए एक हलफनामे में साफतौर पर यह कहा गया था कि वह जनसंख्या विस्फोट को रोकने के लिए जोड़ों को “निश्चित संख्या में बच्चे” रखने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता।
वहीँ इससे पहले वर्ष 2016 में सुप्रीमकोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा था कि “कोई भी नीति जो “सामूहिक नसबंदी” को मजबूर करती है, वह “प्रजनन स्वतंत्रता” का उल्लंघन होगी।”
जस्टिस (अब सेवानिवृत्त) मदन बी लोकुर ने अपने फैसले में कहा कि कोई भी नीति जो “सामूहिक नसबंदी” को मजबूर करती है, वह “प्रजनन स्वतंत्रता” का उल्लंघन होगी, विशेष रूप से समाज के सबसे कमजोर समूहों की। जिन्हे आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियां उन्हें जबरदस्ती का आसान निशाना बनाती हैं।
जनसंख्या नियन्त्र को लेकर जस्टिस लोकुर ने अपने फैसले लिखा था कि स”रकार के जनसंख्या नियंत्रण अभियान के पीछे “बेहतर पहुंच, शिक्षा और सशक्तिकरण” होना चाहिए न कि जबरदस्ती होनी चाहिए।” इतना ही नहीं अदालत ने फैसले में कहा था, “सरकार की नीतियों को समाज में प्रचलित प्रणालीगत भेदभाव को प्रतिबिंबित नहीं करना चाहिए।”
एक याचिका के जबाव में वर्ष 2020 के केंद्र सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने एक हलफनामे के माध्यम से अनिवार्य जनसंख्या नियंत्रण पर अपने रुख पर स्पष्टीकरण दिया था। इसमें कहा गया कि “भारत में परिवार कल्याण कार्यक्रम स्वैच्छिक प्रकृति का है, जो जोड़ों (दम्पतियों) को उनकी पसंद के अनुसार अपने परिवार का आकार तय करने और परिवार नियोजन के तरीकों को अपनाने में सक्षम बनाता है।”
सरकार ने हलफनामे में यह भी कहा कि 2001-2011 में 100 वर्षों में भारतीयों के बीच दशकीय विकास दर में सबसे तेज गिरावट देखी गई। “अंतर्राष्ट्रीय अनुभव से पता चलता है कि बच्चों की एक निश्चित संख्या के लिए कोई भी जबरदस्ती सही नहीं है और ऐसा करना जनसांख्यिकीय विकृतियों की ओर ले जाता है।”