विपक्ष के 22 दलों की बैठक, कोविड-19, प्रवासी मजदूरों और चक्रवात अम्फान से तबाही पर चर्चा

विपक्ष के 22 दलों की बैठक, कोविड-19, प्रवासी मजदूरों और चक्रवात अम्फान से तबाही पर चर्चा

नई दिल्ली। कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी के नेतृत्व में आज हुई 22 विपक्षी दलों की बैठक में देश में कोरोना संक्रमण की स्थति, प्रवासी मजदूरों की मुश्किलों और चक्रवार अम्फान से पश्चिम बंगाल और ओडिशा में हुई तबाही पर चर्चा हुई।

वीडियो कांफ्रेंसिंग से हुई इस बैठक में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और आम आदमी पार्टी ने हिस्सा नहीं लिया। वहीँ इस बैठक में भाग लेने वालो में पूर्व पीएम एचडी देवेगौड़ा, राहुल गांधी, शरद पवार,पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी, महाराष्ट्र के सीएम उद्धव ठाकरे, झारखंड के सीएम, हेमंत सोरेन, सीता राम येचुरी, एमके स्टालिन, डी राजा, शरद यादव, उपेंद्र कुशवाहा, तेजस्वी यादव, उमर अब्दुल्ला, जीतन राम मांझी, एनके प्रेमचंद्रन , जयंत सिंह, बदरुद्दीन अजमल, राजू शेट्टी, पीके कुन्हालिकुट्टी, थिरुमावलवन, जोस के. मानी, डेरेक ओ’ब्रायन, मनोज के झा, कोण्डाराम, प्रफुल्ल पटेल, संजय राउत मौजूद हैं। गुलाम नबी आज़ाद, नेता विपक्ष (RS) बैठक का संचालन कर रहे हैं। अधीर रंजन चौधरी, लोकसभा में कांग्रेस के नेता उनका सहयोग कर रहे हैं। वहीं कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एके एंटोनी, अहमद पटेल, के.सी. वेणुगोपाल, मल्लिकार्जुन खड़गे मौजूद थे।

बैठक में कोरोना वायरस महामारी के बीच प्रवासी श्रमिकों की स्थिति और मौजूदा संकट से निपटने के लिए सरकार की ओर से उठाए गए कदमों और आर्थिक पैकेज पर मुख्य रूप से चर्चा की गई। बैठक की शुरुआत विपक्षी दलों के नेताओं द्वारा बंगाल और ओडिशा में चक्रवात अम्फान से पीड़ित लोगों के प्रति शोक जता कर हुई।

सोनिया गांधी ने कहा, भारत में कोरोना वायरस का पहला मामला सामने आने से पहले ही देश की अर्थव्यवस्था संकट में थी। नोटबंदी और त्रुटिपूर्ण जीएसटी इसके प्रमुख कारण थे। आर्थिक गिरावट 2017-18 से शुरू हुई। सात तिमाही तक अर्थव्यवस्था का लगातार गिरना सामान्य नहीं था फिर भी सरकार गलत नीतियों के साथ आगे बढ़ती रही।

कांग्रेस अध्यक्ष ने कहा, जैसा कि हम जानते हैं कि 11 मार्च को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोविड-19 को वैश्विक महामारी घोषित किया। पूरे विपक्ष ने सरकार को पूरा सहयोग देने का आश्वासन दिया था। यहां तक कि जब 24 मार्च को केवल चार घंटे के नोटिस में लॉकडाउन घोषित कर दिया गया, तब भी हमने इस फैसले का समर्थन किया।

उन्होंने कहा, कोरोना से जंग में प्रधानमंत्री का पहला अंदाजा कि 21 दिन में हम लड़ाई जीत लेंगे, गलत साबित हुआ। ऐसा लगता है वायरस तब तक रहेगा जब तक इसकी कोई वैक्सीन नहीं विकसित हो जाती है। उन्होंने कहा, सरकार लॉकडाउन के मानदंडों को लेकर भी निश्चित नहीं थी और न ही सरकार के पास इसे खत्म करने की कोई योजना है। कोरोना जांच और जांच किट के आयात के मोर्चे पर पर भी सरकार फेल रही है।

22 विपक्षी दलों ने शुक्रवार को केंद्र से आग्रह किया कि ओडिशा और पश्चिम बंगाल में चक्रवात अम्फान की तबाही को तुरंत राष्ट्रीय आपदा घोषित किया जाए। इस दौरान आपदा के प्रभाव का सामना करने में राज्यों की पर्याप्त मदद करने का आह्वान किया। बैठक में 22 दलों के नेताओं ने इस संबंध में एक प्रस्ताव पारित किया और कहा कि राहत और पुनर्वास इस समय सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए।

सोनिया गांधी ने कहा, अर्थव्यवस्था की स्थिति बेहद खराब है। हर बड़े अर्थशास्त्री ने यही सलाह दी है कि राजकीय प्रोत्साहन की तत्काल आवश्यकता है। 12 मई को प्रधानमंत्री की बड़े 20 लाख करोड़ रुपये के पैकेज की घोषणा और वित्त मंत्री द्वारा पांच दिनों तक उसकी जानकारियां देते रहना इस देश के लिए एक क्रूर मजाक बन गया है।

सोनिया ने कहा, इस महामारी की असल तस्वीर सैकड़ों किलोमीटर की पैदल यात्रा कर रहे लाखों प्रवासी मजदूर और उनके बच्चे बयां कर रहे हैं जो बिना पैसे, भोजन या दवाओं के चल रहे हैं और सिर्फ अपने घर जाना चाहते हैं। सोनिया गांधी ने कहा, प्रवासियों, 13 करोड़ परिवारों की सरकार ने बड़ी क्रूरता से अनदेखी की है।

कांग्रेस अध्यक्ष ने कहा, हमारी जैसी सोच रखने वाले दलों ने मांग की थी कि गरीबों के पास नकदी पहुंचनी चाहिए, सभी परिवारों को मुफ्त अनाज मिलना चाहिए, प्रवासी मजदूरों को उनके घर पहुंचाने के लिए लिए बस और ट्रेन की व्यवस्था होनी चाहिए। हमने इस बात पर जोर दिया था कि कर्मचारियों और नियोक्ताओं की सुरक्षा के लिए वेतन असिस्टेंस और वेतन सुरक्षा फंड की स्थापना की जानी चाहिए। लेकिन, हमारी बात सुनी ही नहीं गई।

बैठक के बाद कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने पूछे जाने पर इसके बारे में कहा कि जब भी कोई गंभीर मुद्दा आता है, सोनिया गांधी और राहुल गांधी सामने आते हैं। देश की सबसे बड़ी संस्था संसद को किनारे कर दिया गया है। संसदीय निगरानी लगभग गायब हो चुकी है। लोकतांत्रिक संस्थाएं कमजोर कर दी गई हैं। वे लोकतंत्र के लिए अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा पा रही हैं।

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