साम्प्रदायिकता का उत्तर आधुनिक तर्कशास्त्र और मार्क्सवाद
उत्तर आधुनिकतावाद के बारे में जबलपुर के निशांत और उनके कुछ युवा दोस्तों ने अपनी जिज्ञासाएं रखी हैं। वे चाहते हैं उनके साथ सार्वजनिक संवाद किया जाए। प्रस्थान बिंदु के रूप में अभी जो समस्या चल रही है। उसके संदर्भ में उत्तर आधुनिक विचारक ल्योतार के विचारों की रोशनी में कुछ कहना चाहूँगा।
अभी हमारे देश में साम्प्रदायिक शक्तियां आक्रमक मुद्रा में हैं। वे बहुसंख्यक का नारा देकर समूचे समाज को अपहृत करने में लगी हैं। ल्योतार से एक बार पूछा गयाथा कि बहुसंख्यक का क्या अर्थ है ? इस पर उसने कहा कि बहुसंख्यक का अर्थ ज्यादा संख्या नहीं ज्यादा भय है। उनके ही शब्दों में ‘ मैजोरिटी डज नॉट मीन ग्रेट नम्बर बट ग्रेट फियर’।
न्याय के संदर्भ में यदि कोई फैसला बहुसंख्यक समाज की धार्मिक भावनाओं को केन्द्र में रखकर होता है तो इससे न्याय घायल होता है। इससे मानवीय एकता टूटती है। बहुसंख्यक की भावनाओं के आधार पर किया गया न्याय ऊपर से समग्र लग सकता है लेकिन यथार्थतः इससे मानवता की एकता टूटती है।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि सामाजिक और मानवीय एकता किसी एक तरह के बयानों से निर्मित नहीं होती। आप भारत में हिन्दुत्ववादी तर्कशास्त्र या संघ परिवार या मुस्लिम तर्कशास्त्र के आधार पर सभी समुदायों के बीच एकता बनाए नहीं रख सकते। इस अर्थ में ही बहुसंख्यक के नाम पर खडा किया जा रहा साम्प्रदायिक तानाबाना अधूरा है और यह सबको समेटने में असमर्थ है।
हिन्दुत्ववादी यह देखने में असमर्थ रहे हैं कि भारत जैसे वैविध्यपूर्ण समाज को किसी एक बयान या एक विचारधारा में नहीं बांध सकता। यह समाज किसी एक विचारधारा में बंधा नहीं है। बल्कि भारत को अनेक विचारधाराएं एकीकृत भाव से बांधे हुए हैं।
सामाजिक बंधनों के तानेबाने को किसी एक भाषा ने भी बांधा हुआ नहीं है। बल्कि विभिन्न भाषाओं के खेल में यह तानाबाना बंधा है। तमाम किस्म के सामाजिक बंधनों को बांधने वाली चीज के रूप में यदि सिर्फ हिन्दू और उसकी हिन्दुत्ववादी विचारधारा को रखेंगे तो इस समाज को तमाम सदइच्छाओं के बावजूद एकसूत्र में बांध नहीं सकते। सामाजिक एकीकरण अनेक किस्म की व्यवहारिक और प्रयोजनमूलक चीजों पर टिका है।
सामाजिक बंधन और राष्ट्रीय एकता का आधार कोई एक थ्योरी या विचारधारा नहीं हो सकती है बल्कि सामान्य लोगों के प्रयोजनमूलक अनुभव ही हैं जो उन्हें सामाजिक बंधनों में बांधते हैं। थ्योरी या विचारधारा आम लोग नहीं जानते।
हिन्दुत्ववादी अपने उन्माद में यह भूल गए हैं कि सामाजिक बंधनों को न्याय या राजनीति या संगठनक्षमता के आधार पर नियमित नहीं किया जा सकता। सामाजिक बंधनों का तानाबाना इनके बाहर ऑपरेट करता है। सामाजिक बंधनों में हम सबकी भूमिकाएं तय हैं और जिनकी अभी तक तय नहीं हो पायी हैं उनकी सामाजिक प्रक्रिया में भूमिकाएं तय हो जाएंगी। लेकिन इसका फैसला लोग अपने प्रयोजनमूलक अनुभवों के आधार पर करेंगे।
एक जमाने में मार्क्सवादियों ने समग्रता की धारणा पर बहुत जोर दिया था। लेकिन अनुभव से पता चला कि समग्रता में सोचने से नुकसान होता है। ल्योतार के शब्दों में हमें राजनीतिक निर्णय समग्रता या एकता के आधार पर नहीं लेने चाहिए बल्कि विविधता और बहुस्तरीयता के आधार पर लेने चाहिए। निर्णय की बहुस्तरीयता को राजनीतिक संरचना में कैसे लागू करें यह प्रश्न इसके बाद आता है। न्याय के आधार पर न्यायपूर्ण ढ़ंग से ही राजनीतिक निर्णय की बहुस्तरीयता और विविधता की रक्षा की जा सकती है।
न्याय और विविधता के बीच में सुसंगत संबंध बनाकर ही सामान्य जीवन में,किसी संगठन में,देश में कनवर्जंस हो सकता है। एकीकरण हो सकता है। हमें सार्वभौमत्व से बचना होगा। सार्वभौमत्व की धारणा के गर्भ से ही समग्रता की धारणा निकली है और हमें इससे बचना चाहिए। विविधता को न्याय और व्यवहार के आधार पर परिभाषित करें ,न कि बहुसंख्यकवाद या समग्रता या विचारधारा के आधार पर।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने बाबरी मसजिद विवाद पर जो फैसला सुनाया है वह विविधता विरोधी है। क्योंकि उसमें जजों ने विविधता को न्यायबुद्धि के आधार देखने की कोशिश ही नहीं की बल्कि बहुसंख्यकवाद और आस्था को आधार बनाया है।
‘आजतक ’ टीवी चैनल को दिए (1 अक्टूबर 2010) एक साक्षात्कार में सुप्रीम कोर्ट के भू.पू. प्रधानन्यायाधीश जस्टिस अहमदी ने कहा बाबरी मसजिद प्रकरण में लखनऊ बैंच का फैसला न्याय नहीं है । मुकदमा था विवादित जमीन के मालिक के संदर्भ में लेकिन जजमेंट में मालिक की खोज करने में अदालत असफल रही है।
जस्टिस अहमदी ने कहा है कि इस फैसले के आधार पर जब डिग्री होगी तो मुसलमानों की एक-तिहाई जमीन किसे दी जाएगी ? क्योंकि सुन्नी वक्फ बोर्ड की पिटीशन को अदालत खारिज कर चुकी है। ऐसी स्थिति में फैसला लागू नहीं हो पाएगा। मालिक का फैसला किए वगैर तीन पक्षों में विवादित जमीन को बांटना फैसला नहीं है। बहुसंख्यकवाद के आधार पर सोचने से किस तरह असफलता हाथ लगती है इसका आदर्श उदाहरण है लखनऊ बैंच का ताजा फैसला।
(लेखक कोलकाता विश्वविधालय में हिंदी के प्रोफेसर एवं वरिष्ठ कॉलमिस्ट हैं )