समय से पहले लोकसभा चुनाव कराने पर बीजेपी को कितना नफा, कितना घाटा

समय से पहले लोकसभा चुनाव कराने पर बीजेपी को कितना नफा, कितना घाटा

नई दिल्ली(राजाज़ैद) । राजनैतिक गलियारों में खबर है कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की तर्ज पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी लोकसभा चुनाव समय से पहले कराने के पक्ष में हैं। समय से पहले चुनाव कराना बीजेपी के लिए कितना घातक या कितना फायदेमंद होगा ये तो आने वाला समय ही बताएगा लेकिन आज की स्थति को ध्यान में रखकर बात की जाए तो समय से पहले चुनाव कराना बीजेपी के लिए कांटो भरा ताज साबित हो सकता है।

मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार बीजेपी नेताओं की राय है कि लोकसभा चुनाव कराने के लिए अप्रेल 2019 का इन्तजार करने की जगह इन्हे नवंबर या दिसंबर 2018 तक कराने से बीजेपी को बड़ा लाभ होगा। सम्भवतः इस धारणा के पीछे एक बड़ा कारण यह भी है कि अगले वर्ष मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में चुनाव होने हैं जहाँ बीजेपी सत्ता में हैं और उत्तर प्रदेश के बाद इन राज्यों से बीजेपी को अच्छी तादाद में लोकसभा सीटें मिली हैं।

मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव के साथ लोकसभा चुनाव हुए तो बीजेपी का दांव उल्टा भी पड़ सकता है। इन राज्यों में राज्य सरकार से नाराज़ मतदाता बीजेपी के खिलाफ मतदान करेंगे तो उसका असर लोकसभा सीटों पर भी पड़ेगा। ऐसे में राज्य सरकार से जनता की नाराज़गी का खामियाज़ा बीजेपी को राष्ट्रीय स्तर पर झेलना पड़ सकता है।

यह भी बता दें कि 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी का एक अहम नारा “अच्छे दिन आने वाले हैं” था, जो कहीं न कहीं मतदाताओं के साथ बड़ा धोखा साबित हुआ है। ऐसे में क्या मतदाता किसी नए करिश्माई नारे पर फिर से भरोसा करेगा ?

जानकारों का कहना है कि राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष के महागठबंधन के बनने की सुगबुगाहट को देखते हुए भी बीजेपी समय से पहले चुनाव चाहती है। बीजेपी चाहती है कि यदि देश में विपक्ष के गठजोड़ वाला महागठबंधन बने तो उसे गति पकड़ने से पहले ही चुनाव में ला खड़ा किया जाए जिससे उसे रणनीति बनाकर जनता के बीच जाने का पर्याप्त समय न मिल सके।

वहीँ दूसरी तरफ समय से पहले लोकसभा चुनाव की तैयारियों में जुटी बीजेपी के लिए एक बड़ी मुश्किल यह भी है कि वह जनता के समक्ष अपना कौन सा काम रखेगी। जनता को अपनी उपलब्धि गिनाने के नाम पर नोटबंदी, जीएसटी या तीन तलाक के मुद्दे ऐसे हैं जिनसे मतदाताओं का एक वर्ग नाराज़ भी है। वहीँ स्मार्ट सिटी बनाने, देश में बुलेट ट्रेन चलाने जैसे मामलो में इतनी प्रगति नहीं हुई कि उसे जनता के सामने सबूत के तौर पर पेश किया जा सके।

बीजेपी की सबसे बड़ी मुश्किल बेरोज़गारी है। सत्ता में रहने आंकड़ों की बाज़ीगरी से जमीनी स्तर पर मतदाताओं को और ज़्यादा अँधेरे में नहीं रखा जा सकता। जो बेरोज़गार है उसे मालूम है कि वह बेरोज़गार है और उसे नौकरी नहीं मिली है। इसलिए इस मुद्दे पर बीजेपी खामोश रहकर स्वरोज़गार के लिए बेरोज़गारो को दिए गए क़र्ज़ की बात उठाकर मामले को डाइवर्ट करने की कोशिश ज़रूर करेगी।

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में पाक के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक को बीजेपी ने चढा बढा कर प्रसारित किया था लेकिन अब चीन विवाद के चलते बीजेपी चुनावो में अपनी सरकार की बहादुरी का राग नहीं अलाप सकेगी। वहीँ पाकिस्तान द्वारा लगातार किये जा रहे सीज फायर के उललंघन के बाद सर्जिकल स्ट्राइक की बात किसी के गले उतरे ये सम्भव नहीं दिखता।

जिन राज्यों में बीजेपी की सरकार है वहां तो उसे राज्य सरकार से जनता की नाराज़गी का खामियाजा भुगतना पड़ेगा ही। अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश में योगी सरकार, मध्य प्रदेश में शिवराज सरकार का ग्राफ गिरा है। उत्तर प्रदेश के गोरखपुर हादसे में मारे गए बच्चो पर जनता की नाराज़गी, हरियाणा में महिलाओं की सुरक्षा और मध्य प्रदेश में किसानो का शिवराज सरकार से मोह भंग होने का खामियाजा तो बीजेपी को भुगतना ही पड़ेगा।

बीजेपी अपने जिस मतदाता को सौ फीसदी पक्का मान रही है वह मतदाता देशभर में सिर्फ 5 फीसदी या उससे भी कम है। यह मतदाताओं की वह श्रेणी है जिसने 2014 में हिंदुत्व और नरेंद्र मोदी के नाम पर वोट किया था । वहीँ बीजेपी को यह भी जान लेना होगा कि वर्ष 2014 में नरेंद्र मोदी राष्ट्रीय स्तर पर एक नया चेहरा थे। आम मतदाताओं को उनसे कुछ अपेक्षाएं थीं इसलिए मतदाताओं ने उनपर भरोसा करके बीजेपी को एकतरफा वोट दिया था लेकिन अब 2014 जैसे हालत नहीं हैं।

लोकसभा चुनाव समय से पहले हों या समय पर, इतना तय है कि दलितों पर हमले, गौरक्षको के आतंक और कश्मीर में धारा 370 हटाने को लेकर बीजेपी की कथनी करनी में फर्क, केंद्र और राज्य में सरकार होने के बावजूद राम मंदिर का निर्माण न हो पाना, नोटबंदी और उसके बाद व्यापारियों पर जीएसटी की लगाम जैसे कई मुद्दे अगले लोकसभा चुनाव में बीजेपी की राह मुश्किल भी कर सकते हैं।

यह भी बता दें कि 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी का एक अहम नारा “अच्छे दिन आने वाले हैं” था, जो कहीं न कहीं मतदाताओं के साथ बड़ा धोखा साबित हुआ है। ऐसे में क्या मतदाता किसी नए करिश्माई नारे पर फिर से भरोसा करेगा ?

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