प्राइम टाइम : 2002 में नरोडा पाटिया और गुलबर्ग सोसायटी के हमलावर किस के भाषणों से प्रेरित थे
ब्यूरो (राजा ज़ैद खान) । अगर कोई किसी के भाषणों से प्रेरित होकर आतंकी बन सकता है तो इस दुनिया में सारे लोग तो ऐसे नहीं जो आतंकी बनने के भाषण दे रहे हो । इस दुनिया में सिर्फ ISIS ही आतंकी संगठन नहीं इससे पहले भी कई आतंकी संगठन बने और समाप्त हुए हैं । इसलिए यह कह देना कि कोई किसी के भाषण सुनकर भावनाओं में बहकर आतंकी बन सकता है ये बात खुद में बड़ी बेमानी सी लगती है ।
आतंक का न कोई धर्म होता है और न उसकी क्षमताओं को आँका जा सकता है । कभी श्रीलंका में प्रभाकरन का लिब्रेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (लिट्टे) भी अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त आतंकी संगठन हुआ करता था, सोचने की बात है कि लिट्टे के सदस्य किस का भाषण सुनकर आतंकी बने और यदि मान भी लिया जाए तो लिट्टे के प्रमुख प्रभाकरन ने हथियार उठाने से पहले किस का भाषण सुना था ?
दुनिया में आतंक का पर्याय बने अल कायदा के प्रमुख ओसामा बिन लादेन किस का भाषण सुनकर आतंकी बने ? जो स्वयं एक आतंकी है उसे किसी के भाषणों से क्या फर्क पड़ता है और यदि फर्क पड़ता तो दुनिया में अच्छे भाषण देने वालो की तादाद हमेशा से ज़्यादा रही है फिर ऐसे लोगों को अच्छे भाषण सुनकर कोई असर क्यों नहीं हुआ ?
दुनिया को छोड़ भी दीजिये सिर्फ अपने देश को ही ले लीजिए । सन 2002 में गुजरात में भड़की धार्मिक हिंसा के दौरान नरोडा पाटिया और गुलबर्ग सोसयटी में हमलावरों ने जिस तरह से लोगों को निशाना बनाया वह किसी बड़ी आतंकी कार्यवाही से कम नहीं था । क्या ये मान लिया जाए कि नरोडा पाटिया और गुलबर्ग सोसायटी के हमलावरों को हमला करने से पहले कोई भाषण सुनाया गया था या हमलावर किसी के भाषणों से प्रभावित थे ?
सन 2002 में हुई सांप्रदायिक घटनाओं के दौरान नरोडा पाटिया में हमलावरों से जिस बेरहमी से इंसानियत का क़त्ल किया उसे कोई आम आदमी करने की सोच भी नहीं सकता । क्या छोटे क्या बड़े और क्या बच्चे , हमलावरो ने सबके साथ घोर अमानवीय व्यवहार किया जिसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता ।
चूँकि आतंकी की कोई परिभाषा नहीं होती, इसलिए ज़रूरी नहीं कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हो रही घटनाओं को ही आतंकवाद कहा जाए । निर्दोष लोगों का हर हमलावर खुद में एक आतंकी ही होता है फिर वह चाहे किसी धर्म, जाति या राजनैतिक विचार धारा का पालन क्यों न करता हो ।
22 जनवरी 1999 को उड़ीसा में एक संगठन विशेष के अनुयायी दारा सिंह द्वारा ऑस्ट्रेलियन मिशनरी ग्रैहम स्टेन्स के परिवार को मय दो छोटे बच्चों के कार में बंद कर ज़िंदा जला दिया था । इस घटना को क्या कहा जाएगा ? क्या दारा सिंह का यह घिनौना कृत्य आतंक नहीं है ? विकिपीडिया के अनुसार दारा सिंह बजरंग दल का सदस्य था । इस घटना के बाद क्या यह मान लिया जाए कि इस निर्मम ह्त्याकांड को दारा सिंह ने किसी के भाषणों से प्रेरित होकर किया ?
दुनिया को छोड़ दीजिये , मैं पूरी दुनिया की बात नहीं करना चाहता । सिर्फ अपने देश में हुई घटनाओं पर एक नज़र डालकर देखिये और खुद तय कीजिये कि भीड़ की शक्ल में निर्दोषों पर हमलाकर उनकी जान लेने वालो को आतंकी कहना उचित है या नहीं ?
कानून सबके लिए बराबर होता है फिर वह चाहे ज़ाकिर नाईक ही क्यों न हों । यदि कोई किसी के भाषण से प्रभावित होकर कोई आतंकी बन सकता है तो गुजरात और महाराष्ट्र में हुई दिल दहलाने वाली घटनाओं के ज़िम्मेदार लोग किस के भाषण से प्रेरित हुए थे । ये एक बड़ा सवाल है । यदि राजनितिक चश्मे से देखेंगे तो पेशेवर मीडिया की तरह आपको भी उसका एक ही रूप दिखाई देगा ।