तीन तलाक के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाएगा शिया पर्सनल लॉ बोर्ड
लखनऊ। ऑल इंडिया शिया पर्सनल लॉ बोर्ड ‘तीन तलाक’ पर प्रतिबंध लगाने के लिए सुप्रीम कोर्ट जाएगा। यह फैसला लखनऊ में हुई बोर्ड की बैठक में लिया गया. बोर्ड ने सरकार को खत लिख कर मांग की है कि वह कानून बना कर ‘सती प्रथा’ की तरह ‘तीन तलाक’ को भी बैन करे क्योंकि ये महिला विरोधी है, प्राकृतिक न्याय और संविधान के खिलाफ है।
लखनऊ में हुई शिया पर्सनल लॉ बोर्ड की बैठक में आम राय थी कि तीन तलाक के खिलाफ मुहिम चलाई जाए. सुप्रीम कोर्ट में तीन तलाक के खिलाफ पहले से चल रहे केस में बोर्ड इंटरवेंशन पिटीशन दाखिल कर इसे प्रतिबंधित करने की मांग करेगा। बोर्ड के सदस्यों ने इसके लिए कई तर्क दिए. मिसाल के तौर पर, कुरान में तीन तलाक नहीं है, फिर यहां क्यों लागू है? कुरान में मर्द-औरत को बराबर कहा गया है और मुस्लिम शादी एक अनुबंध है।
फिर इस अनुबंध में दोनों को बराबर अधिकार क्यों नहीं? शिया तीन तलाक नहीं मानते. क्या वे मुस्लिम नहीं हैं? कई मुस्लिम देशों में यह बैन है। फिर यहां क्यों नहीं? देश के संविधान में मर्द-औरत बराबर हैं. फिर ये संविधान विरोधी चलन कैसे लागू है? यह एकतरफा और प्राकृतिक न्याय के खिलाफ है। फिर कैसे लागू है?
शिया पर्सनल लॉ बोर्ड के प्रवक्ता मौलाना यासूब अब्बास कहते हैं, ‘इस देश में दाल में नमक ज्यादा होने, खाना खराब बनाने, शौहर के दोस्त से हंसकर बात कर लेने पर भी मर्द तीन तलाक कह के तलाक दे दे रहे हैं। इसमें औरत की कोई सुनवाई नहीं है, इसलिए सरकार ने जिस तरह सती प्रथा को प्रतिबंधित करने के लिए कानून बनाया था, उसी तरह इसे भी कानून बनाकर प्रतिबंधित करे। ‘
तीन तलाक देश में सुन्नी मुसलमानों में चलन में है। इसके तहत शौहर, बीवी को बिना वजह बताए, बिना किसी इत्तेला के तीन बार तलाक कहकर तलाक दे सकता है। उलेमा के मुताबिक जिन तरीकों से तलाक हो जाता है उनमें, नशे में दिया गया तलाक, गुस्से में दिया गया तलाक, सपने में दिया गया तलाक, नौकर से बीवी को कहलवाया गया तलाक, स्काइप, ईमेल, खत, एसएमएस, व्हाट्सऐप, ट्विटर, फेसबुक मैसेंजर और फोन पर दिया गया तलाक शामिल है।
इस देश के कानून में दफ्तर से चपरासी को भी निकालने से पहले उसको सुनवाई का मौका देना जरूरी है लेकिन मुस्लिम बीवी बिना वजह बताए जिंदगी से निकाली जा सकती है। जहां मर्द को बिना वजह भी तलाक का अधिकार दिया जा रहा है, वहीं अगर शौहर महिला पर जुल्म ज्यादती करे तो भी उसे अपने पति को तलाक देने का अधिकार नहीं है।
महिला अधिकारों के लिए काम करने वाली वरिष्ठ पत्रकार शाहीरा नईम कहती हैं कि ‘अगर औरत की हामी शादी में होनी जरूरी है तो उसकी हामी तलाक में भी होनी चाहिए. उसे भी किसी रिश्ते से बाहर निकलने का अधिकार होना चाहिए।’
सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीश अनिल आर. दवे और न्यायाधीश एके गोयल ने एक जनहित याचिका पर स्वत: संज्ञान लेते हुए सुनवाई की थी. इसे ‘बराबरी की तलाश में मुस्लिम महिला’ नाम दिया गया था और बाद में यह मुख्य न्यायाधीश की बेंच में पहुंच गई। तब ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने इसमें एक हस्तक्षेप याचिका दाखिल की और कहा कि अदालत को पर्सनल लॉ में दखल देने का कोई अधिकार नहीं है। साथ में ये भी कहा कि मर्द को तलाक देने का अधिकार इसलिए दिया गया है क्योंकि उसके अंदर सोचने-समझने की सलाहियत औरत से ज्यादा होती है। अदालत ने इस मामले में सरकार से जवाब दाखिल करने को कहा है।