एक गाँव जो अंग्रेजों ने कर दिया था नीलाम, बर्बरता के मूक गवाह हैं बरगद के पेड़ और जर्जर कुआं
चंडीगढ़ (जग मोहन ठाकन)। हरियाणा के जनपद भिवानी से करीब 35 कि.मी. दूरी पर एक गांव है रोहनात, जिसे अंग्रेजों द्वारा नीलाम किए जाने से यह गांव देश की आजादी के बाद अब भी अपने आप को गुलामी की जंजीरों में जकड़ा महसूस कर रहा है, जिसका ग्रामीणों को मलाल है। परिणाम स्वरूप आज भी ग्रामीण देश की आजादी के जश्र का खुलकर इजहार नहीं करते।
यहां के निवासियों को आजादी के प्रथम आंदोलन वर्ष 1857 के दौरान अंग्रेजो ने सरेआम गोलियों से छलनी कर दिया था। इस क्षेत्र से आजादी के आंदोलन की अगुवाई करने वाले इस गांवं के चारों ओर अंग्रेजों ने तोप लगा दी थी। गांव में एक तालाब पर दो बरगद के पेड़ और एक कुआं है, जो आज भी ग्रामीणों की शहादत को बयां कर रहे हैं। शहादत की कहानी सुनाते-सुनाते यहां के ग्रामीणों की आंखे नम हो जाती हैं।
इस प्रकार रही है गांव रोहनात की शहादत की कहानी :
ग्रामीणों के अनुसार हांसी में अंग्रेज़ों की छावनी होती थी। वर्ष 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की चिंगारी हिसार- हांसी भी पहुंची थी। देश को आजाद करवाने की ज्वाला दिल में लेकर 29 मई 1857 को मंगल खां के विरोध का साथ देते हुए रोहनात के निवासी स्वामी बरण दास बैरागी, रूपा खाती व नौंदा जाट सहित हिंदू व मुस्लिम एकत्रित होकर हांसी पहुंचे।
गांव रोहनात के अलावा आसपास के गांवों के ग्रामीणों ने भी अंग्रेजो पर हमला बोल दिया, जिसमे हांसी व हिसार के दर्जन-दर्जन भर अंग्रेजी अफसर मारे गए। यहां के क्रांतिकारी वीरों ने जेल में बंद कैदियों को रिहा करवा दिया और तत्कालीन अंग्रेजी सल्तनत के खजाने भी लूटे। जब अंग्रेज आला अधिकारियों को इस बात की सूचना मिली तो विरोध की इस चिंगारी को दबाने के लिए एक पलाटून को जरनल कोर्ट लैंड की अगुवाई में हांसी भेजा।
अंग्रेजों ने गांव पुठी मंगल क्षेत्र में तोपें लगवाकर रोहनात पर हमला बोला। गांव रोहनात के सैंकड़ों लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया। गांव के बिरड़ दास बैरागी को तोप पर बांध कर उनके शरीर को चीथड़ों की तरह उड़ा दिया। इतना ही नहीं अंग्रेजों का विरोध करने वाले ग्रामीणों को अंग्रेज़ अपने साथ हांसी ले गए, जहां पर उनके शरीर के उपर से रोड़ रोलर फेर दिया, जिससे यह सडक़ खून से लथपथ होकर लाल हो गई और वर्तमान में भी यह सडक़ लाल सडक़ के नाम से जानी जाती है। हांसी की लाल सडक़ रोहनात व आसपास के ग्रामीणों के बलिदान की निशानी है, यह सडक़ आज भी मौजूद है।
अंग्रेजी बर्बरता के मूक गवाह हैं बरगद के पेड़ और कुआं :
गांव के तालाब किनारे बना जर्जर कुआं अंग्रेजी हुकुमत की क्रूरता का मूक गवाह है। यह कुआं ठीक जलियांवाला बाग के कुंए की याद दिलाता है, जहां पर लोगों ने अपनी जान बचाने के लिए छलांग लगाई थी। कुंए की दर-दीवारों से ग्रामीणों और महिलाओं की चित्कार सुनाई देती है, जो अपनी जान व इज्जत बचाने के लिए कुएं में कूदे थे। यहीं पास में ही दो बरगद के पेड़ हैं, जहां पर अंग्रेजों ने लोगों को सरेआम फांसी के फंदे पर लटका दिया था। ग्रामीणों के अनुसार कुछ समय पहले तक इन पेड़ों पर फंदो के निशान थे। इन पेड़ों व कुएं को देखने भर मात्र से ग्रामीणों की आंखें आंसुओं से नम हो जाती हैं।
शहादत के साथ गांव को मिली नीलामी की सजा :
ग्रामीणों का कहना है कि शहादत देने के साथ-साथ गांव रोहनात को गांव की नीलामी की भी सजा मिली। ग्रामीणों द्वारा की गई मुखालफत अंग्रेजों को फूटी आंख नहीं सुहाई और उन्होंने रोहनात को बागी गांव घोषित कर दिया गया।
हिसार के तत्कालीन अंग्रेजी अधिकारी ने तत्कालीन क्षेत्र के तहसीलदार से गांव की सारी ज़मीन का रिकॉर्ड तलब किया और 20 अप्रैल 1858 को गांव की जमीन को नीलाम कर दिया, जिसके तहत 20,656 बीघे, 19 बीसवे ज़मीन की नीलामी की गई। अन्य गांवों के लोगों ने नीलामी के दौरान गांव की पूरी जमीन को 61 खरीददारों ने 8100 रुपए में खरीदा। कुल पूँजी का चौथाई हिस्सा यानि दो हज़ार 25 रुपये उसी वक्त जमा करवाया गया। शेष राशि 6075 बाद में जमा करवाते ही अंग्रेज़ों ने खरीददारों को कब्ज़ा दिला दिया और ग्रामीणों को बागी करार दे दिया। नीमाली के दौरान 13 बीघे जमीन को छोड़ दिया गया, जहां पर यह तालाब, कुंआ और बरगद के पेड़ हैं।
यहां के ग्रामीणों को देश की आजादी में अपने पूर्वजों द्वारा दिए गए बलिदान पर गर्व है, लेकिन मलाल इस बात है कि देश की आजादी के बाद अब तक उनके गांव को शहादत के बदले कोई सौगात नहीं मिली है।
(लेखक जग मोहन ठाकन वरिष्ठ स्तम्भकार हैं)