हड़बड़ी भरे फैसले से हुआ देश व दिलीप को नुकसान
ब्यूरो(संजय रोकड़े)। दिलीप सांघवी को दो साल में 91 हजार करोड़ का नुकसान। कभी देश के सबसे अमीर शख्स होने का तमगा हासिल करने वाले दिलीप इस समय देश के छठवें स्थान पर पहुंचे। देश में मोदी सरकार ने नोटबंदी को लेकर जो हो- हल्ला मचाया था अब धीरे-धीरे उसका सच सामने आने लगा है। केन्द्र सरकार की आर्थिक नीतियों के परिणाम भी सामने दिखाई देने लगे है।
नई दिल्ली में हाल ही में एक खबर छपी थी कि सन फार्मा इंडस्ट्रीज के संस्थापक और उसके प्रमुख दिलीप सांघवी की संपत्ति दो सालों में 14 अरब डॉलर कम हो गई है। कभी देश के सबसे अमीर शख्स होने का तमगा हासिल करने वाले दिलीप इस समय देश के छठवें सबसे अमीर व्यक्ति बन कर रह गये हैं।
ब्लूमबर्ग बिलियनेयर इंडेक्स की माने तो अब सांघवी की नेटवर्थ करीब 11.1 बिलियन डॉलर हो गई है। देश के सबसे बड़े दवा निर्माता का शेयर अप्रैल 2015 में ऑल टाइम हाई से 57 फीसद नीचे गिर गया था। इसका सबसे बड़ा कारण नोटबंदी के साथ ही जेनरिक दवाओं के बाजार में हुई उठा-पटक को बताया है। हालाकि कंपनी ने कुछ हद तक मार्केट के सेंटीमेंट को भी इसका एक कारण माना है।
अमेरिकी बाजार में बढ़ती प्रतिस्पर्धा के कारण कंपनी का स्टॉक नीचे गिरता जा रहा है। इन सब के चलते सांघवी की नेटवर्थ पर गहरा असर पड़ा है। सबसे बड़ी और हैरान करने वाली बात तो ये है कि मार्च 2015 में सन फार्मा के फाउंडर दिलीप सांघवी ने मुकेश अंबानी को भी पछाड़ दिया था। सन फार्मा में सांघवी और उनके परिवार की 54.4 फीसदी हिस्सेदारी है।
इधर सन फार्मा के प्रवक्ता ने कंपनी के गिरते शेयर दामों और सिंघवी की नेट संपत्ति के संबंध में किसी भी प्रकार की जानकारी देने से इंकार किया है, पर सच तो ये है कि कंपनी के प्लांट्स पर लगे प्रतिबंध और बाजार में बढ़ती प्रतिस्पर्धा के कारण पिछली तिमाही में कंपनी की बिक्री में तेजी से गिरावट दर्ज की गई है।
मतलब साफ है कि अब तल्ख हकीकत से पर्दा उठने लगा है। नोटबंदी ने दिलीप जैसे और तमाम दूसरे उद्योगपतियों को बरबाद किया है। हालाकि नोटबंदी के समय सरकार ने इसे हर मंच से जायज और सही ठहराया था, पर इसके बाद 2016-17 की चौथी तिमाही के आंकड़े बताते हैं कि सकल घरेलू उत्पाद दर घट कर 7.1 से 6.1 फीसद पर आ गई ।
नोटबंदी के कारण बाजार में तरलता की कमी से मांग घटी और छोटे कारोबारियों की कमर टूट गई। अब जबकि जीएसटी के अमल का समय नजदीक आ रहा है, सरकार जमीनी सच्चाई को नकारते हुए कमजोर अर्थव्यवस्था का ठीकरा वैश्विक कारणों पर फोड़ रही है। नोटबंदी के समय प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अमत्र्य सेन ने भी कहा था कि यह कदम न समझदारी भरा है और न ही मानवीय है। तब नोटबंदी से कालाधान और भ्रष्टाचार मिटाने का राग आलापने वाले कुछ लोगों ने इसे महज मजाक करार दिया था। लेकिन अब जैसे-जैसे जमीनी हकीकत सामने आ रही है, वैसे-वैसे लोगों को समझ में आने लगा है कि बिना तैयारी और महज हड़बड़ी में किए गए फैसले ने देश को कितनी बड़ी समस्या में ड़ाल दिया है।
इस मामले में सरकार से लेकर अदालत तक ने सच को परे कर भ्रमजाल बुनने का काम किया। यह काम अभी भी निरंतर जारी है। इसकी एक बानगी हाल ही में जेटली द्वारा दिए गए सकल घरेलू उत्पाद के आंकड़े है। देश के सकल घरेलू उत्पाद के ताजा आंकड़ों पर बात करते हुए जेटली ने विकास दर में गिरावट का कारण विमुद्रीकरण नहीं बल्कि वैश्विक बताया। इसके साथ ही तमगा ये भी लगाया कि यह कांग्रेस से मिली कमजोर अर्थव्यवस्था का भी परिणाम है। वे अपनी बात रखते हुए तेजी से सेना और पाकिस्तान की ओर मुड़ गए लेकिन बता दूं कि इसके पहले नोटबंदी लागू करते वक्त वित्तमंत्री इसके असर को सरहद के साथ जोडऩा नहीं भूलते थे।
बहरहाल अर्थव्यवस्था की झुकती कमर को सरहद का सहारा देकर खड़ा करना वे अच्छी तरह से जानते हैं। नोटबंदी से कितना कालाधन पकड़ा गया और भ्रष्टाचार कितना रुका जैसे सवाल भले ही टाल गए लेकिन वह निर्वात में घूमते रहे। इन सबका जवाब देना वित्त सह रक्षा मंत्री देना उचित नही समझा और न ही इसकी जिम्मेदारी कबुली। इस तरह का भ्रमजाल फैलाने में उनके साथ दूसरी ताकतें भी प्रभावी है।
वित्त वर्ष 2016-17 की चौथी तिमाही के आंकड़े ये बयां कर रहे थे कि सकल घरेलू उत्पाद विकास दर घटकर 6.1 फीसद आ गई है और इसका कारण नोटबंदी का उलटा असर है उसी दौरान राजस्थान हाई कोर्ट के एक जज गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करने की सिफारिश करते हुए इन सबसे ध्यान हटाने का प्रयास करते दिखाई दिए। यही तो भ्रमजाल है। सच से महरूम कर जनता का ध्यान भटकाने में जेटली और उनकी मंड़ली माहिर है।
सही मायने में नोटबंदी का जो लाभ देश में आमजन व उद्योगपतियों को मिलना चाहिए था असल में वह मिला नही है पर इस बात को अभी भी मोदी सरकार खासकर वित्त मंत्री जेटली स्वीकार करने को राजी नही है। काबिलेगौर हो कि नोटबंदी का बुरा असर मध्यप्रदेश के किसान आंदोलन के रूप में भी सामने आया है। इस आंदोलन के भडकने के पीछे का एक कारण नोटबंदी भी बताया गया है। यहां के किसानों ने कर्ज के बोझ और न्यूनतम समर्थन मूल्य के अपने मुद्दे के अलावा जो सबसे बड़ी व्यावहारिक समस्या बताई, वह नोटबंदी ही थी।
अब हालत यह है कि विभिन्न संस्थानों, शोध समूहों और खुद रिजर्व बैंक ने नोटबंदी की वजह से अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव की बात मानी है। नोटबंदी के शुरुआती दौर में विशेषज्ञ माने जाने वाले जो कुछ लोग इसका समर्थन कर रहे थे, उनने भी अब साफतौर पर ‘मिया कल्पा’ या गलती मानने का समय करार दिया है। अगर ऐसे लोग यह कहें कि नोटबंदी वह आखिरी कदम था, जिसने किसानों की कमर तोड दी और उसके बाद ही किसानों के विरोधों का सिलसिला या कर्ज माफी की मांग उठनी शुरू हुई तो समझा जा सकता है कि नोटबंदी के सतही फैसले के नीचे कितनी परतें ढकी थी।
सच कहे तो दो बार के सूखे ने जितना नुकसान किसानों को नही पहुंचाया उससे कहीं अधिक नोटबंदी ने पहुंचाया है। इधर मंदसौर के किसानों ने भी नोटबंदी को सरासर हानिकारक बताया है। इन किसानों का ये स्वीकार करना कि नोटबंदी हमारे लिए दुखदायी साबित हुई है यह सवाल भी तो मोदी सरकार की नीतियों पर प्रश्रचिन्ह ही लगाता है। हालाकि सरकार के नुमांईदों द्वारा किसानों की इस बात को हर स्तर पर झुटलाने का प्रयास किया जा रहा है।
असल में किसानों की ये बात नोटबंदी के फैसले को आईना दिखाती है। क्या यह तथ्य सरकारी या गैरसरकारी अध्ययनों में कभी दर्ज नहीं हुआ था कि इस देश के ज्यादातर किसान अपनी फसलों की खरीद-बिक्री से लेकर अपने बाकी कामों के लिए किस तरह नकदी पर निर्भर हैं। गांव के गरीब किसान कितने इंटरनेट शिक्षित हैं।
यह एक दूखद सच है कि नोटबंदी के दौरान एक तरफ बाजार में पर्याप्त नकदी नहीं होने से ज्यादातर किसान अपनी फसल बेचने के लिए बाजार तक नही पहुंच पाए थे वहीं दूसरी ओर बहुत सारे किसान बैंक खाते न होने से रूपये नही निकाल पाए। बैंकों से रुपए निकासी की सीमा तय कर दिए जाने के बाद तो समस्या ने और विकराल रूप ले लिया। क्या इस बात को समझना इतना मुश्किल था।
मुझे नही लगता है कि नोटबंदी के बाद देश में लोगों की क्या हालत होगी और इन पर इसका क्या असर होगा, इसका अंदाजा लगाना इतना मुश्किल भरा काम था। खैर। कोई माने या न माने लेकिन सच तो यही है कि नकदी रहित अर्थव्यवस्था के दावों की हकीकत इतने दिनों में ही आम लोगों और किसानों की मौत के रूप में सामने आ चुकी है।
दरसअल यहां सवाल तो ये भी है कि अगर किसी भी प्रकार का बुनियादी ढांचा खड़ा किए बगैर ऐसे दावे किए जाएगें तो नतीजा तो हास्यास्पद ही होगा। यह सन फार्मा और किसानों की मौत के रूप में हमारे सामने है। इस तरह के हास्यास्पद कदमों से होने वाले नुकसान की एक बानगी बैंक स्टेट बैंक ऑफ इंडिया का एक वर्शन भी पेश करता है।
देश के सार्वजनिक क्षेत्र के सबसे बडे बैंक स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने हाल ही में यह आशंका जताई कि नोटबंदी के कारण अर्थव्यवस्था पर न केवल मंदी का असर जारी रहेगा, बल्कि इससे बैंकों के कारोबार पर भी विपरीत प्रभाव पड़ेगा। अब इसके बाद भी किसी प्रकार की सफाई देना बचता है तो इससे हास्यास्पद और क्या हो सकता है। अब तो सच को स्वीकार कर तिमाही के आंकड़ों व नोटबंदी के फैसले पर फिर से बहस करने की जरूरत है।
नोटबंदी पर उद्योगों के प्रमुख संगठन एसोचैम ने भी बीते दिनों सरकार को चेतावनी देते हुए कहा था कि इसकी वजह से कई क्षेत्रों में नौकरियों का जाना बदस्तूर जारी है, किसान और मजदूर वर्ग पर इसका असर बुरा होगा और ये वर्ग असमय मारा जाएगा। इसका असर सकल घरेलू उत्पाद के आंकड़ों पर पडऩा भी तय है। एसोचैम की शंका को हाल में आए जीडीपी के आंकड़ों ने भी सच साबित कर दिया है। इतना ही नही इस नोटबंदी ने वैश्विक स्तर पर भी हमारी साख पर बट्टा लगाया है।
नोटबंदी का उलटा असर नौकरियों पर बुरी तरह से पड़ा है। आंकड़े बताते हैं कि रियल स्टेट में विकास दर 6 फीसद से घटकर 3.7 फीसद रह गयी है। बिल्डरों की सेहत बिगड़ी तो ठेकेदारों और मजदूरों के हाथ से काम निकल गया। सरकार ने कालेधन को उजागर करने के नाम पर जो अघोषित इमरजेंसी लगाई थी उसका खमियाजा अभी तक आम आदमी झेल रहा है।
निर्माण सामग्री की मांग देश में काफी कम होने से कारोबारी से लेकर कामगार तक त्राहिमाम की स्थिति में हैं। अब हम आपको मनरेगा की तरफ ले चलते है। नोटबंदी ने ग्रामीण गरीबों के लिए चलाई जा रही इस योजना को भी अपने आगोश में ले लिया है। पिछले कुछ महीनों से मनरेगा के तहत मिलने वाले रोजगार में तेईस फीसद की कमी सामने आई है।
इन आंकड़े की अनदेखी कर अगर यह कहा जाए कि नोटबंदी कामयाब रही है तो यह महज उन परिवारों के दुखों पर ही पर्दा डालने का काम है जिनकी जीविका मनरेगा के भरोसे चल रही थी। इन सब विपरित हालातों के बाद भी पीएम मोदी ने यूपी के विधानसभा चुनाव में नोटबंदी को जोर -शोर से पेश किया।
प्रधानमंत्री महानायक की तरह टीवी पर अवतरित हुए और नोटबंदी को कालेधन के खिलाफ रामबाण अस्त्र बताया। लगे-लगाए गृह मंत्रालय की ओर से भी एक बयान जारी हो गया कि नोटबंदी के बाद से कश्मीर में पत्थरबाजी खत्म हो गई। सरकार से जुड़े संगठन भारत की नोटबंदी से पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था के खात्मे के नारे लगा रहे है।
बहरहाल मोदी और उनकी मंडली भले ही ये जताने में कामयाब रही हो कि नोटबंदी के फायदे ही हुए है नुकसान नही लेकिन इस मामलें में पीढ़ादायक विषय ये है कि ठीक इसके बाद रिजर्व बैंक के मुखिया उर्जित पटेल संसदीय समिति के सामने नोटबंदी के फायदे और नुकसान के आंकड़े बताने में नाकाम साबित हुए थे।
हालांकि, नोटबंदी के फैसले के कुछ समय बाद ही इस बात के आंकलन आने शुरू हो गए थे कि इसकी वजह से लघु उद्योगों से लेकर दूसरे तमाम क्षेत्रों में रोजगारों पर बुरा असर पड़ेगा लेकिन सरकार हर मौके पर इसको झुटलाने में लगी रही। आखिर सरकार के पास इस सवाल का क्या जवाब है कि नोटबंदी ने देश में त्राहिमाम मचाने के सिवाय और कुछ नही किया। क्या इतने बड़े नुकसान की वजह सिर्फ और सिर्फ एक हड़बड़ी भरा फैसला नही रहा है।
उपरोक्त लेख लेखक के निजी विचार हैं। लेखक मीडिय़ा रिलेशन पत्रिका का संपादन करने के साथ ही सम-सामयिक विषयों पर कलम चलाते है।